सचेतन 180: श्री शिव पुराण- उमा संहिता- समय जब अनुकूल नहीं हो तो मनुष्य प्रायः पाप या गुनाह कर लेते हैं
अनुकूलता आपका सर्वस्व बन जाये तो आप सब कुछ कर सकते हैं
समर्पण करने से हमारे अहंकार समाप्त हो जाते हैं और हम सामाजिक कल्याण हेतु उपयुक्त भी बन जाते हैं। समर्पण से ही किसी का विश्वास अर्जित किया जा सकता है। इसी विश्वास से प्राय: हम जीवन के सबसे अमूल्य अवसर प्राप्त करते हैं। यही अवसर हमारी प्रगति में निर्णायक सिद्ध होते हैं।
समर्पित होने के लिए आपको सुख-दुख की अधीनता को छोड़ कर उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करना पड़ता है और उसमें जो कुछ उत्तम मिले उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया रस-युक्त बना सकते हैं।
जीवन को उन्नत करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है। इसलिये आप जो उचित समझो सो मार्ग ग्रहण कर इस कर्त्तव्य को सिद्ध करो। प्रतिकूलता से डरना छोड़ना होगा उससे डरना बंद करना होगा।
अनुकूलता आपका सर्वस्व बन जाये तो आप सब कुछ कर सकते हैं यानी, जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाना एक धेय बनाना पड़ेगा। यह जीवन ज्यों-ज्यों उच्च बनेगा त्यों-त्यों आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह सब अनुकूल दीखने लगेगा और अनुकूलता आ जाने पर, दुःख मात्र की निवृत्ति हो जायेगी।
लेकिन जब हम प्रतिकूलता की स्थिति में पाप या गुनाह कर लेते हैं या किसी भी धर्म में अस्वीकार्य कार्य को अपनाते हैं जिससे अध्यात्मिक एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास होता है, या आर्थिक एवं प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट पहुंचाता है यह सब पाप या गुनाह की श्रेणी में आते हैं।
वह व्यक्ति, जो पाप करता है, पापी या गुनहगार कहलाता है। सामान्य भाषा में कहे तो बुरे कार्यों को पाप कहा जाता हैं। यह पांच प्रकार के होते हैं।
हिंसा किसी जीव को मारना,उसे दुख देना हिंसा हैं।
असत्य झूठ बोलना
चोरी किसी वस्तु को बिना आज्ञा ग्रहण करना,चुराना
कुशील व्यभिचार रूप गलत कार्यों को कुशील कहते हैं
परिग्रह यानी अपरिग्रह गैर-अधिकार की भावना, गैर लोभी या गैर लोभ की अवधारणा यज्ञ और ग्राम को नष्ट करने वाला घोर वैतरणी नदी में पड़ता है। जो नयी जवानी से मतवाले हो धर्म की मर्यादा को तोड़ते हैं, अपवित्र आचार-विचार से रहते हैं और छल-कपट से जीविका चलाते हैं, वे कृत्य नामक नरक में जाते है। जो अकारण ही वृक्षों को काटता है, वह असि-पत्रवन नामक नरक में जाता है। भेंड़ों को बेचकर जीविका चलाने वाले तथा पशुओं की हिंसा करने वाले कसाई वहिनिज्चवाल नामक नरक में गिरते हैं। भ्रष्टाचारी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तथा जो कच्चे खपड़ों अथवा ईंट आदि को पकानेके लिये पजावे में आग देता है, वे सब उसी वहिनिच्चाल नरक में गिरते हैं। जो व्रतोंका लोप करने वाले तथा अपने आश्रम से गिरे हुए हैं, वे दोनों ही प्रकार के पुरुष अत्यन्त दारुण संदंश नामक नरक की यातना में पड़ते हैं।
नरक, स्वर्ग का विलोमार्थक है। विश्व की प्राय: सभी जातियों और धर्मों की आदिम तथा प्राचीन मान्यता के अनुसार मरणोत्तर अधौलोक, स्थान या अवस्था जहाँ किसी देवता, देवदूत या राक्षस द्वारा अधर्मी, नास्तिक, पापी और अपराधी दुष्टात्माएँ दंडित होती हैं। यह विभिन्न संस्कृतियों में नरक की कल्पना है।
सामान्यतः ठंडे देशों में नरक की कल्पना हिमाच्छादित लोक और गर्म देशों में अग्नितप्त लोक के रूप में मिलती है। इसकी स्थिति, संख्या, प्रकार और दंडयातना के संबंध में विविध कल्पनाएँ हैं।
हिंदू नरक दक्षिण और पाताल के निम्नतल भाग में कल्पित है, जहाँ चित्रगुप्त की पुष्टि पर यमदेवता पापी को उसके अपराध के अनुसार 28 नरकों में से किन्हीं की यातना देने का निर्णय अपने दूतों को देते हैं। अथर्ववेद से भागवत पुराण तक आते आते नरकों की संख्या 50 करोड़ हो गई जिनमें 21, 28 या 40 मुख्य हैं।
मुस्लिम नरक (‘नरक (दोजख)’ और ‘जहन्नुम’) विशाल अग्निपुंज के समान है और सातवें तबके में तहत-उल-शरी में स्थित है जहाँ मालिक नामक देवदूत के अनुशासन में 19 स्वीरों (जबानिया) या दूतों द्वारा ईश्वरी कृपा से वंचित गुनहगारों को धकेल दिया जाता है।