सचेतन 179: श्री शिव पुराण- उमा संहिता- समर्पण जीवन का आवश्यक भाव है।

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लघुता से प्रभुता मिले! 

पूर्व कालीन दृष्टान्तों पर विचार करो— अपने शरीर की हड्डियों से वज्र बनाने के लिये दधीचि ऋषि ने जब स्वयं अपने को प्रसन्नता पूर्वक इन्द्र को समर्पण कर दिया था, तब क्या उन्हें कष्ट हुआ था? नहीं। उन्होंने अपना जीवन त्याग दिया ताकि उनकी हड्डियों का उपयोग वज्र के निर्माण के लिए किया जा सके, जो वृत्र को मारने के लिए देवता इंद्र का हीरे जैसा दिव्य वज्र है ।कारण उन्होंने उस दुख को अपने आधीन मानकर ही उसे स्वीकार किया था। भागवान राम, पांडव, भीष्म पितामह, ध्रुव पार्वती आदि स्त्री-पुरुष तथा बालक जाति ने विविध प्रकार के दुःख स्वीकार किये थे। परन्तु दुःखों के ऊपर अपना सामर्थ्य जानकर ही उन्हें ग्रहण किया था। अन्त में उन्होंने उस में अपना इस प्रकार हित साधन किया जो उन्हें अन्य किसी प्रकार से भी मिलना सम्भव न था। इसी कारण आज वह मर कर भी अमर है और सदैव अमर रहेंगे। 

साराँश यह है कि हमें दुःखों से न डरना चाहिए और न उनके आधीन होना चाहिए। वरन् उन्हें आया हुआ देख, उनमें हितकर क्या है, यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए। कई सद्गुण ऐसे भी हैं जो दुःखों के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। ऐसे बलवान सद्गुण सिद्ध करने के लिए दुःख अथवा कष्टों को स्वयं ही स्वीकार करते हैं। अब भी अनेक मनुष्य उपवास आदि के कष्ट स्वयं स्वीकार करते हैं जिनका हेतु सुख अथवा कुछ अधिक लाभ प्राप्त करना ही है। 

इस प्रकार सुख, दुख दोनों तुम्हारे आधीन हैं। तुम स्वतन्त्र हो, परतन्त्र नहीं। जो कुछ प्राप्त करने के लिए तुम्हें जैसा प्रयत्न करना हो करो और उसमें जिन साधनों का उपयोग करना पड़े निःसंकोच भाव से समर्पण  के साथ करो। 

समर्पण capitulation से आशय युद्ध के समय में सैनिकों के एक विशेष समूह, किसी नगर या एक क्षेत्र के शत्रुदल के सामने आत्मसमर्पण के लिए किया गया एक समझौता है। समर्पण प्रायः युद्ध की एक सामान्य घटना है, चाहे वह जीवन हो या राष्ट्र। 

समर्पण भाव क्या होता है?

सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को निःस्वार्थपूर्वक सौंप देना, जिस पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किये बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती।

समर्पण का उदाहरण जैसे मैं यह छोटी सी किताब अपने बच्चों को समर्पित करता हूं। यह आपके लिए है, मेरी ओर से, आपकी प्यारी माँ की ओर से।

लक्ष्य की प्राप्ति और जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है समर्पण का होना। 

समर्पण के साथ-साथ विश्वास का होना भी आवश्यक है। जिस प्रकार एक बीज धरती में रोपित किया जाता है तो वह संपूर्ण रूप से खुद को धरती मां की गोद में समर्पित कर देता है। तभी उसमें विकास के नए अंकुर फूट पड़ते हैं।

समर्पण प्रत्येक प्राणी के लिए अत्यंत आवश्यक भाव है। यही वह भाव है जिसके माध्यम से हम अपने आत्मीय जनों के प्रिय बन सकते हैं। यह स्मरण रहे कि राग, द्वेष, घृणा तथा स्वार्थ का त्याग किए बिना समर्पण की कल्पना व्यर्थ है। हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू में समर्पण का भाव आवश्यक है। समर्पण हमारे लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक है। 

संबंधों में मधुरता के लिए हमें परस्पर समर्पण भाव रखते हुए रिश्तों का निर्वहन करना होता है। स्वार्थ की दृष्टि से बनाए गए रिश्ते अल्पावधि के उपरांत समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी समर्पण भाव का होना अत्यंत आवश्यक है। जब हम अपने संपूर्ण समर्पण के साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित हो जाते हैं, तब कोई भी लक्ष्य हमसे दूर नहीं रहता।

समर्पण के साथ-साथ विश्वास का होना भी आवश्यक है। जिस प्रकार एक बीज धरती में रोपित किया जाता है, तो वह संपूर्ण रूप से खुद को धरती मां की गोद में समर्पित कर देता है। तभी उसमें विकास के नए अंकुर फूट पड़ते हैं। भास्कर की किरणों उसे शक्ति प्रदान करती हैं। पवन की शीतलता उसे दुलारती है।

मेघ उसका अभिसिंचन करते हैं। इस प्रकार उसे संपूर्ण प्रकृति का सहयोग एवं साहचर्य मिलने लगता है। उसके बाद वह धीरे-धीरे एक संपूर्ण वृक्ष का आकार ले लेता है। एक ऐसे वृक्ष का, जिसके आश्रय में तमाम प्राणी शीतलता प्राप्त करते हैं। यही नहीं, वह वृक्ष सैकड़ों बीजों के जनक होने का गौरव भी प्राप्त करता है।

अणु से विभु, इसे ही कहते हैं लघु से विराट बनने की प्रक्रिया आत्मसमर्पण के सांचे और ढांचे में परिपूर्ण होती है। लघुता से प्रभुता मिलता है।

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