सचेतन, पंचतंत्र की कथा-28 :सिंह, ऊँट, सियार और कौए की कथा

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नमस्कार, दोस्तों! स्वागत है आपका “सचेतन” के नए एपिसोड में। आज हम आपको एक दिलचस्प कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिसमें मदोत्कट सिंह, उसके नौकर और एक बेचारा ऊँट शामिल है। चलिए, शुरू करते हैं।

किसी वन में मदोत्कट नाम का एक सिंह रहता था। उसके नौकरों में चीता, कौआ, सियार और दूसरे पशु शामिल थे। एक बार ये सब इधर-उधर घूम रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक ऊँट कारवां से भटककर अलग हो गया है। इस पर सिंह ने कहा, “अरे! यह कोई अजीब जानवर है। पता लगाओ कि यह गाँव का है या शहर का।” यह सुनकर कौआ बोला, “स्वामी! यह ऊँट नाम का जानवर गाँव में रहने वाला है और आपका भोजन हो सकता है, इसलिए इसे मार दीजिए।” सिंह ने कहा, “घर आने वाले को मैं नहीं मार सकता। कहा गया है कि ‘जो बिना भय के घर आए शत्रु को मारता है, उसे ब्राह्मण के मारने जैसा पाप लगता है।’ इसलिए तुम इसे अभयदान देकर मेरे पास लाओ ताकि मैं इसके आने का कारण पूछ सकूं।”

इस पर वे सब ऊँट को भरोसा दिलाकर और अभयदान देकर मदोत्कट के पास ले आए। ऊँट ने सिंह को प्रणाम किया और बैठ गया। बाद में सिंह ने जब उससे पूछा, तो उसने कारवां से अलग होने का अपना पूरा हाल बताया। इस पर सिंह ने कहा, “अरे ऊँट! अब तू गाँव जाकर बोझ उठाने की तकलीफ मत उठाओ। इस जंगल की हरी-भरी घास को चरते हुए मेरे पास रहो।” ऊँट भी ‘ठीक है’ कहकर, और यह जानकर कि अब कोई डर नहीं है, खुशी-खुशी वहां रहने लगा।

कुछ समय बाद, एक दिन मदोत्कट की एक जंगली हाथी से लड़ाई हो गई। हाथी के दांतों से सिंह को गंभीर चोट लगी और वह बुरी तरह घायल हो गया। घायल होने के बावजूद सिंह मरा नहीं, लेकिन कमजोरी के कारण चलने में असमर्थ हो गया। सिंह के नौकर, कौआ, सियार और अन्य, सभी भूख से परेशान थे और अपने मालिक की हालत देखकर चिंतित हो गए। इस पर सिंह ने उनसे कहा, “कहीं से कोई ऐसा जीव खोज लाओ जिसे मैं मारकर तुम सबका खाना जुटा सकूं।”

सभी नौकर चारों ओर घूमने लगे, लेकिन कोई जानवर नहीं मिला। इस पर कौआ और सियार आपस में बात करने लगे। सियार ने कहा, “अरे कौए! इस भाग-दौड़ का क्या फायदा? हमारे मालिक के पास जो ऊँट रह रहा है, उसी को मारकर अपना गुजारा करना चाहिए।” कौआ बोला, “तूने ठीक कहा, लेकिन मालिक ने उसे अभयदान दिया है, इसलिए उसे मारना उचित नहीं होगा।” सियार ने जवाब दिया, “अरे कौए! मैं मालिक को ऐसा समझाऊंगा कि वे खुद ही ऊँट को मार डालें। तब तक तुम यहीं रुको, मैं मालिक से आज्ञा लेकर आता हूं।” यह कहकर सियार जल्दी से सिंह के पास पहुंचा और बोला, “मालिक! हमने सारा जंगल घूम लिया, लेकिन कोई जानवर नहीं मिला। अब हम क्या करें? हम सभी बहुत कमजोर हो गए हैं और अब आगे चलना भी मुश्किल हो रहा है। अगर आपकी आज्ञा हो तो ऊँट का मांस ही उपयोग में लाया जाए।”

सियार की इस बात को सुनकर सिंह बहुत गुस्सा हुआ और बोला, “अरे पापी! तुझे धिक्कार है। अगर तूने फिर से ऐसा कहा तो मैं तुझे उसी वक्त मार डालूंगा। मैंने उसे अभयदान दिया है, मैं उसे कैसे मार सकता हूँ? विद्वान लोग इस संसार में सभी दानों में अभयदान को सबसे बड़ा मानते हैं, चाहे वह गोदान हो, भूमि दान हो, या अन्न दान।”

यह सुनकर सियार ने कहा, “स्वामी! अगर किसी को अभयदान देकर मारा जाए तो उससे पाप लगता है। लेकिन अगर महाराज की सेवा में कोई अपनी जान खुद दे दे, तो उससे कोई दोष नहीं होता। इसलिए अगर वह खुद मरने के लिए तैयार हो जाए, तभी आप उसे मारें। नहीं तो हममें से किसी एक को मार दें, क्योंकि आप बीमार हैं और भूख को सहन नहीं कर सकते। हमारी जान छोटी है, लेकिन अगर स्वामी का कुछ बुरा हुआ तो हमें भी मर जाना पड़ेगा। कहा भी गया है कि किसी कुल के मुख्य व्यक्ति की रक्षा करना बहुत ज़रूरी होता है, क्योंकि उसके न होने से पूरा कुल बर्बाद हो जाता है, जैसे गाड़ी की धुरी के टूटने से आरे उसका भार नहीं उठा सकते।”

यहां पर आज की कहानी खत्म होती है। अगले एपिसोड में हम जानेंगे कि कैसे भूख से बेहाल सिंह के नौकर एक चाल चलते हैं।

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