सचेतन 2.70: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – सीताजी का तर्क-वितर्क

| | 0 Comments

तब शाखाके भीतर छिपे हुए, विद्युत्पुञ्ज के समान अत्यन्त पिंगल वर्णवाले और श्वेत वस्त्रधारी हनुमान जी पर उनकी दृष्टि पड़ी फिर तो उनका चित्त चञ्चल हो उठा। उन्होंने देखा, फूले हुए अशोक के समान अरुण कान्ति से प्रकाशित एक विनीत और प्रियवादी वानर डालियों के बीच में बैठा है। उसके नेत्र तपाये हुए सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। विनीतभाव से बैठे हुए वानरश्रेष्ठ हनुमान जी को देखकर मिथिलेशकुमारी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन सोचने लगीं- अहो! वानरयोनि का यह जीव तो बड़ा ही भयंकर है। इसे पकड़ना बहुत ही कठिन है। इसकी ओर तो आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं होता।’ ऐसा विचारकर वे पुनः भयसे मूर्च्छित-सी हो गयीं। भय से मोहित हुई भामिनी सीता अत्यन्त करुणाजनक स्वर में ‘हा राम! हा राम! हा लक्ष्मण!’ ऐसा कहकर दुःख से आतुर हो अत्यन्त विलाप करने लगीं। उस समय सीता मन्द स्वर में सहसा रो पड़ीं। । इतने ही में उन्होंने देखा, वह श्रेष्ठ वानर बड़ी विनय के साथ निकट आ बैठा है तब भामिनी मिथिलेशकुमारीने सोचा-‘यह कोई स्वप्न तो नहीं है। 

उधर दृष्टिपात करते हुए उन्होंने वानरराज सुग्रीव के आज्ञा पालक विशाल और टेढ़े मुखवाले परम आदरणीय, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, वानरप्रवर पवनपुत्र हनुमान जी को देखा। उन्हें देखते ही सीताजी अत्यन्त व्यथित होकर ऐसी दशा को पहुँच गयीं, मानो उनके प्राण निकल गये हों। फिर बड़ी देर में चेत होने पर विशाललोचना विदेहराजकुमारी ने इस प्रकार विचार किया— आज मैंने यह बड़ा बुरा स्वप्न देखा है। सपने में वानर को देखना शास्त्रों ने निषिद्ध बताया है। मेरी भगवान् से प्रार्थना है कि श्रीराम, लक्ष्मण और मेरे पिता जनक का मंगल हो (उनपर इस दुःस्वप्न का प्रभाव न पड़े)। 

परंतु यह स्वप्न तो हो नहीं सकता; क्योंकि शोक और दुःख से पीड़ित रहने के कारण मुझे कभी नींद आती ही नहीं है (नींद उसे आती है, जिसे सुख हो) मुझे तो उन पूर्णचन्द्र के समान मुखवाले श्रीरघुनाथजी से बिछुड़ जाने के कारण अब सुख सुलभ ही नहीं है। 

मैं बुद्धि से सर्वदा ‘राम! राम!’ ऐसा चिन्तन करके वाणी द्वारा भी राम-नाम का ही उच्चारण करती रहती हूँ; अतः उस विचार के अनुरूप वैसे ही अर्थवाली यह कथा देख और सुन रही हूँ। मेरा हृदय सर्वदा श्रीरघुनाथ में ही लगा हुआ है; अतः श्रीराम-दर्शन की लालसा से अत्यन्त पीड़ित हो सदा उन्हीं का चिन्तन करती हुई उन्हीं को देखती और उन्हीं की कथा सुनती हूँ। सोचती हूँ कि सम्भव है यह मेरे मन की ही कोई भावना हो तथापि बुद्धि से भी तर्क-वितर्क करती हूँ कि यह जो कुछ दिखायी देता है, इसका क्या कारण है? मनोरथ या मन की भावना का कोई स्थूल रूप नहीं होता; परंतु इस वानर का रूप तो स्पष्ट दिखायी दे रहा है और यह मुझसे बातचीत भी करता है। 

मैं वाणी के स्वामी बृहस्पति को, वज्रधारी इन्द्रको, स्वयम्भू ब्रह्माजी को तथा वाणी के अधिष्ठातृ-देवता अग्नि को भी नमस्कार करती हूँ। इस वनवासी वानर ने मेरे सामने यह जो कुछ कहा है, वह सब सत्य हो, उसमें कुछ भी अन्यथा न हो। 

सीताजी का हनुमान जी को अपना परिचय देते हुए अपने वनगमन और अपहरण का वृत्तान्त बताना। 

उधर मूंगे के समान लाल मुखवाले महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान जी ने उस अशोक-वृक्ष से नीचे उतरकर माथे पर अञ्जलि बाँध ली और विनीतभाव से दीनतापूर्वक निकट आकर प्रणाम करने के अनन्तर सीताजी से मधुर वाणी में कहा— 

‘प्रफुल्लकमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाली देवि! यह मलिन रेशमी पीताम्बर धारण किये आप कौन हैं? अनिन्दिते! इस वृक्ष की शाखा का सहारा लिये आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? कमल के पत्तों से झरते हुए जल-बिन्दुओं के समान आप की आँखों से ये शोक के आँसू क्यों गिर रहे हैं। 

शोभने! आप देवता, असुर, नाग, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, किन्नर, रुद्र, मरुद्गण अथवा वसुओं में से कौन हैं? इनमें से किसकी कन्या अथवा पत्नी हैं? सुमुखि! वरारोहे ! मुझे तो आप कोई देवता-सी जान पड़ती हैं। 

क्या आप चन्द्रमा से बिछुड़कर देवलोक से गिरी हुई नक्षत्रों में श्रेष्ठ और गुणों में सबसे बढ़ी-चढ़ी रोहिणी देवी हैं? 

अथवा कजरारे नेत्रोंवाली देवि! आप कोप या मोह से अपने पति वसिष्ठजी को कुपित करके यहाँ आयी हुई कल्याणस्वरूपा सतीशिरोमणि अरुन्धती तो नहीं हैं।॥ सुमध्यमे! आपका पुत्र, पिता, भाई अथवा पति कौन इस लोक से चलकर परलोकवासी हो गया है, जिसके लिये आप शोक करती हैं। रोने, लम्बी साँस खींचने तथा पृथ्वी का स्पर्श करने के कारण मैं आपको देवी नहीं मानता। आप बारम्बार किसी राजा का नाम ले रही हैं तथा आपके चिह्न और लक्षण जैसे दिखायी देते हैं, उन सब पर दृष्टिपात करने से यही अनुमान होता है कि आप किसी राजा की महारानी तथा किसी नरेश की कन्या हैं।

रावण जनस्थान से जिन्हें बलपूर्वक हर लाया था, वे सीताजी ही यदि आप हों तो आपका कल्याण हो। आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। मैं आपके विषय में जानना चाहता हूँ। दुःख के कारण आप में जैसी दीनता आ गयी है, जैसा आपका अलौकिक रूप है तथा जैसा तपस्विनी का-सा वेष है, इन सबके द्वारा निश्चय ही आप श्रीरामचन्द्रजी की महारानी जान पड़ती हैं। 

हनुमान जी की बात सुनकर विदेहनन्दिनी सीता श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा से बहुत प्रसन्न थीं; अतः वृक्ष का सहारा लिये खड़े हुए उन पवनकुमार से बोलीं- अब अगले अंक में।।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Sachetan Logo

Start your day with a mindfulness & focus boost!

Join Sachetan’s daily session for prayers, meditation, and positive thoughts. Find inner calm, improve focus, and cultivate positivity.
Daily at 10 AM via Zoom. ‍