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कपिकुञ्जर हनुमान् जी रावण के महल को देखकर मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करने लगे। श्रेष्ठ नरेश्वर श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी उन सीताजी को बहुत देर तक ढूँढ़ने पर भी जब हनुमान्जी न देख सके, तब वे तत्क्षण अत्यन्त दुःखी और शिथिल हो गये। अब हम बात कर रहे हैं की कैसे हाउन्मन जी दुःखी और शिथिल से वापस आ गये – हम सभी को यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि लचीलेपन के लिए एक कौशल की आवश्यकता होती है जिस पर आप काम कर सकते हैं और समय के साथ बढ़ सकते हैं। लचीलापन बनाने में समय, ताकत और आपके आस-पास के लोगों की मदद लगती है; आपको संभवतः रास्ते में असफलताओं का अनुभव होगा। यह व्यक्तिगत व्यवहार और कौशल (जैसे आत्मसम्मान और संचार कौशल) और बाहरी चीजों (जैसे सामाजिक समर्थन और आपके लिए उपलब्ध संसाधन) पर निर्भर करता है। फिर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले कपिवर हनुमान जी बड़ी शीघ्रता के साथ लंका के सतमहले मकानों में यथेच्छ विचरने लगे। अत्यन्त बल-वैभव से सम्पन्न वे पवनकुमार राक्षसराज रावण के महल में पहुँचे, जो चारों ओर से सूर्य के समान चमचमाते हुए सुवर्णमय परकोटों से घिरा हुआ था। जैसे सिंह विशाल वन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार बहुतेरे भयानक राक्षस रावण के उस महल की रक्षा कर रहे थे। उस भवन का निरीक्षण करते हुए कपिकुञ्जर हनुमान् जी मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करने लगे। लचीलापन, प्रतिस्कंदन, कुछ बुरा होने के बाद फिर से प्रसन्न, सफल आदि होने की क्षमता। अघात/सदमे के शोधकर्ता मानव चित्त के लचीलेपन पर बल देते हैं। वह महल चाँदी से मढ़े हुए चित्रों, सोने जड़े हुए दरवाजों और बड़ी अद्भुत ड्योढ़ियों तथा सुन्दर द्वारों से युक्त था।हाथी पर चढ़े हुए महावत तथा श्रमहीन शूरवीर वहाँ उपस्थित थे। जिनके वेग को कोई रोक नहीं सकता था, ऐसे रथवाहक अश्व भी वहाँ शोभा पा रहे थे। सिंहों और बाघों के चमड़ों के बने हुए कवचों से वे रथ ढके हुए थे, उनमें हाथी-दाँत, सुवर्ण तथा चाँदी की प्रतिमाएँ रखी हुई थीं। उन रथों में लगी हुई छोटी-छोटी घंटिकाओं की मधुर ध्वनि वहाँ होती रहती थी; ऐसे विचित्र रथ उस रावण-भवन में सदा आ-जा रहे थे। रावण का वह भवन अनेक प्रकार के रत्नों से व्याप्त था, बहुमूल्य आसन उसकी शोभा बढ़ाते थे। उसमें सब ओर बड़े-बड़े रथों के ठहरने के स्थान बने थे और महारथी वीरों के लिये विशाल वासस्थान बनाये गये थे।दर्शनीय एवं परम सुन्दर नाना प्रकार के सहस्रों पशु और पक्षी वहाँ सब ओर भरे हुए थे। सीमा की रक्षा करने वाले विनयशील राक्षस उस भवन की रक्षा करते थे। वह सब ओर से मुख्य-मुख्य सुन्दरियों से भरा रहता था। (किसी पदार्थ का) लचीलापन, मुड़ने, खिंचने या दबने के बाद अपना आकार में वापस आने की क्षमता वहाँ की रत्नस्वरूपा युवती रमणियाँ सदा प्रसन्न रहा करती थीं। सुन्दर आभूषणों की झनकारों से झंकृत राक्षसराज का वह महल समुद्र के कल-कलनाद की भाँति मुखरित रहता था। वह भवन राजोचित सामग्री से पूर्ण था, श्रेष्ठ एवं सुन्दर चन्दनों से चर्चित था तथा सिंहों से भरे हुए विशाल वन की भाँति प्रधान-प्रधान पुरुषों से परिपूर्ण था। वहाँ भेरी और मृदङ्ग की ध्वनि सब ओर फैली हुई । थी। वहाँ शङ्क की ध्वनि गूंज रही थी। उसकी नित्य पूजा एवं सजावट होती थी। पर्वो के दिन वहाँ होम किया जाता था। राक्षस लोग सदा ही उस राजभवन की पूजा करते थे। वह समुद्र के समान गम्भीर और उसी के समान कोलाहलपूर्ण था। महामना रावण का वह विशाल भवन महान् रत्नमय अलंकारों से अलंकृत था। उसमें हाथी-घोड़े और रथ भरे हुए थे तथा वह महान् रत्नों से व्याप्त होने के कारण अपने स्वरूप से प्रकाशित हो रहा था। महाकपि हनुमान् ने उसे देखा। देखकर कपिवर हनुमान् ने उस भवन को लंका का आभूषण ही माना। तदनन्तर वे उस रावण-भवन के आस-पास ही विचरने लगे। इस प्रकार वे एक घर से दूसरे घर में जाकर राक्षसों के बगीचों के सभी स्थानों को देखते हुए बिना किसी भय से अट्टालिकाओं पर विचरण करने लगे। महान् वेगशाली और पराक्रमी वीर हनुमान् वहाँ से कूदकर प्रहस्त के घर में उतर गये। फिर वहाँ से उछले और महापार्श्व के महल में पहुँच गये। तदनन्तर वे महाकपि हनुमान् मेघ के समान प्रतीत होने वाले कुम्भकर्ण के भवन में और वहाँ से विभीषण के महल में कूद गये। इसी तरह क्रमशः ये महोदर, विरूपाक्ष, विद्युज्जिह्व और विद्युन्मालि के घर में गये। इसके बाद महान् वेगशाली महाकपि हनुमान् ने फिर छलाँग मारी और वे वज्रदंष्ट्र, शुक तथा बुद्धिमान् सारण के घरों में जा पहुँचे। इसके बाद वे वानर-यूथपति कपिश्रेष्ठ इन्द्रजित् के घर में गये और वहाँ से जम्बुमालि तथा सुमालि के घर में पहुँच गये।तदनन्तर वे महाकपि उछलते-कूदते हुए रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु और वज्रकाय के महलों में जा पहुँचे। फिर क्रमशः वे कपिवर पवनकुमार धूम्राक्ष, सम्पाति, विद्युद्रूप, भीम, घन, विघन, शुकनाभ, चक्र, शठ, कपट, ह्रस्वकर्ण, द्रंष्ट्र, लोमश, युद्धोन्मत्त, मत्त, ध्वजग्रीव, विद्युज्जिह्व, द्विजिह्व, हस्तिमुख, कराल, पिशाच और शोणिताक्ष आदि के महलों में गये। इस प्रकार क्रमशः कूदते-फाँदते हुए महायशस्वी पवनपुत्र हनुमान् उन-उन बहुमूल्य भवनों में पधारे। वहाँ उन महाकपि ने उन समृद्धिशाली राक्षसों की समृद्धि देखी। तत्पश्चात् बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान् उन सब भवनों को लाँघकर पुनः राक्षसराज रावण के महल पर आ गये।