सचेतन 2.112 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान जी की रणनीति- सीता की दुरवस्था बताकर वानरों को लङ्का पर आक्रमण करने के लिये उत्तेजित करना

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हनुमान जी का आत्मविश्वास और शक्ति की पराकाष्ठा स्पष्ट थी। 

नमस्कार और स्वागत है “महानायक हनुमान” के बारे में सचेतन के इस विचार के सत्र  में। आज हम एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना पर चर्चा करेंगे, जब पवनकुमार हनुमान जी ने वानरों को लंका पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।

हनुमान जी ने जब सीता जी की दुरवस्था देखी, तो उन्होंने वानरों को उत्साहित करने के लिए यह कथा सुनाई—

हनुमान जी कहते हैं –  “कपिवरो! श्रीरामचन्द्रजी का उद्योग और सुग्रीव का उत्साह सफल हुआ। सीताजी का उत्तम शील-स्वभाव देखकर मेरा मन अत्यन्त संतुष्ट हुआ। वानरशिरोमणियो! जिस नारी का शील-स्वभाव आर्या सीता के समान होगा, वह अपनी तपस्या से सम्पूर्ण लोकों को धारण कर सकती है अथवा कुपित होने पर तीनों लोकों को जला सकती है।

राक्षसराज रावण सर्वथा महान् तपोबल से सम्पन्न जान पड़ता है। जिसका अङ्ग सीता का स्पर्श करते समय उनकी तपस्या से नष्ट नहीं हो गया। हाथ से छू जाने पर आग की लपट भी वह काम नहीं कर सकती, जो क्रोध दिलाने पर जनकनन्दिनी सीता कर सकती हैं।”

हनुमान जी ने आगे कहा—”इस कार्य में मुझे जहाँ तक सफलता मिली है, वह सब इस रूप में मैंने आपलोगों को बता दिया। अब जाम्बवान् आदि सभी महाकपियों की सम्मति लेकर हम सीता के साथ ही श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मण का दर्शन करें, यही न्यायसंगत जान पड़ता है।

मैं अकेला भी राक्षसगणोंसहित समस्त लङ्कापुरी का वेगपूर्वक विध्वंस करने तथा महाबली रावण को मार डालने के लिये पर्याप्त हूँ। फिर यदि आप जैसे वीर, बलवान्, शुद्धात्मा, शक्तिशाली और विजयाभिलाषी वानरों की सहायता मिल जाए, तब तो कहना ही क्या है?

युद्धस्थल में सेना, अग्रगामी सैनिक, पुत्र और सगे भाइयों सहित रावण का तो मैं ही वध कर डालूँगा। यद्यपि इन्द्रजित् के ब्राह्म अस्त्र, रौद्र, वायव्य तथा वारुण आदि अस्त्र युद्ध में दुर्लक्ष्य होते हैं किसी की दृष्टि में नहीं आते हैं, तथापि मैं ब्रह्माजी के वरदान से उनका निवारण कर दूंगा और राक्षसों का संहार कर डालूँगा।”

हनुमान जी का आत्मविश्वास और शक्ति की पराकाष्ठा स्पष्ट थी। उन्होंने अपनी शक्ति का वर्णन करते हुए कहा—  “यदि आपलोगों की आज्ञा मिल जाए तो मेरा पराक्रम रावण को कुण्ठित कर देगा। मेरे द्वारा लगातार बरसाये जाने वाले पत्थरों की अनुपम वृष्टि रणभूमि में देवताओं को भी मौत के घाट उतार देगी; फिर उन निशाचरों की तो बात ही क्या है? 

आपलोगों की आज्ञा न होने के कारण ही मेरा पुरुषार्थ मुझे रोक रहा है। समुद्र अपनी मर्यादा को लाँघ जाय और मन्दराचल अपने स्थान से हट जाय, परंतु समराङ्गण में शत्रुओं की सेना जाम्बवान् को विचलित कर दे, यह कभी सम्भव नहीं है। सम्पूर्ण राक्षसों और उनके पूर्वजों को भी यमलोक पहुँचाने के लिये वाली के वीर पुत्र कपिश्रेष्ठ अङ्गद अकेले ही काफी हैं। वानरवीर महात्मा नील के महान् वेग से मन्दराचल भी विदीर्ण हो सकता है; फिर युद्ध में राक्षसों का नाश करना उनके लिये कौन बड़ी बात है?

तुम सब-के-सब बताओ तो सही-देवता, असुर, यक्ष, गन्धर्व, नाग और पक्षियों में भी कौन ऐसा वीर है, जो मैन्द अथवा द्विविद के साथ लोहा ले सके? ये दोनों वानरशिरोमणि महान् वेगशाली तथा अश्विनीकुमारों के पुत्र हैं। समराङ्गण में इन दोनों का सामना करने वाला मुझे कोई नहीं दिखायी देता।

मैंने अकेले ही लङ्कावासियों को मार गिराया, नगर में आग लगा दी और सारी पुरी को जलाकर भस्म कर दिया। इतना ही नहीं, वहाँ की सब सड़कों पर मैंने अपने नाम का डंका पीट दिया।”

हनुमान जी की ये बातें सुनकर वानरों में एक नया जोश और उत्साह भर गया। उन्होंने लंका पर आक्रमण करने की तैयारी शुरू कर दी।

अत्यन्त बलशाली श्रीराम और महाबली लक्ष्मण की जय हो! श्रीरघुनाथजी के द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की भी जय हो! मैं कोसलनरेश श्रीरामचन्द्रजी का दास और वायुदेवता का पुत्र हूँ। हनुमान् मेरा नाम है। इस प्रकार सर्वत्र अपने नाम की घोषणा कर दी है।

हनुमान जी अशोकवाटिका के मध्यभाग में एक अशोक-वृक्ष के नीचे साध्वी सीता जी को देखते हैं, जो बड़ी दयनीय अवस्था में रहती हैं। राक्षसियों से घिरी हुई होने के कारण वे शोकसंताप से दुर्बल होती जा रही हैं। बादलों की पंक्ति से घिरी हुई चन्द्रलेखा की भाँति श्रीहीन हो गयी हैं। सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहनन्दिनी जानकी पतिव्रता हैं। वे बल के घमंड में भरे रहने वाले रावण को कुछ भी नहीं समझती हैं, तो भी उसी की कैद में पड़ी हैं। कल्याणी सीता जी श्रीराम में सम्पूर्ण हृदय से अनुरक्त हैं, जैसे शची देवराज इन्द्र में अनन्य प्रेम रखती हैं, उसी प्रकार सीता का चित्त अनन्यभाव से श्रीराम के ही चिन्तन में लगा हुआ है। 

वे एक ही साड़ी पहने धूलि-धूसरित हो रही हैं। राक्षसियों के बीच में रहती हैं और उन्हें बारंबार उनकी डाँट-फटकार सुननी पड़ती है। इस अवस्था में कुरूप राक्षसियों से घिरी हुई सीता को मैंने प्रमदावन में देखा है। वे एक ही वेणी धारण किये दीनभाव से केवल अपने पतिदेव के चिन्तन में लगी रहती हैं।

हनुमान जी ने देखा कि माता सीता जी नीचे भूमि पर सोती हैं। हेमन्त ऋतु में कमलिनी की भाँति उनके अङ्गों की कान्ति फीकी पड़ गयी है। रावण से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। वे मरने का निश्चय किये बैठी हैं। हनुमान जी ने बड़ी कठिनाई से किसी तरह माता सीता जी को विश्वास दिलाया। तब उनसे बातचीत का अवसर मिला और सारी बातें हनुमान जी उनके समक्ष रख सके।

श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता की बात सुनकर माता सीता जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। सीता जी में सुदृढ़ सदाचार (पातिव्रत्य) विद्यमान है। अपने पति के प्रति उनके हृदय में उत्तम भक्ति है। सीता जी स्वयं ही जो रावण को नहीं मार डालती हैं, इससे जान पड़ता है कि दशमुख रावण महात्मा है, तपोबल से सम्पन्न होने के कारण शाप पाने के अयोग्य है। तथापि सीताहरण के पाप से वह नष्टप्राय ही है। श्रीरामचन्द्रजी उसके वध में केवल निमित्तमात्र होंगे।

भगवती सीता एक तो स्वभावसे ही दुबली-पतली हैं, दूसरे श्रीरामचन्द्रजी के वियोग से और भी कृश हो गयी हैं। जैसे प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय करने वाले विद्यार्थी की विद्या क्षीण हो जाती है, उसी प्रकार उनका शरीर भी अत्यन्त दुर्बल हो गया है।

इस प्रकार महाभागा सीता जी सदा शोक में डूबी रहती हैं। अतः इस समय जो प्रतीकार करना हो, वह सब आपलोग करें।

श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।

आज के एपिसोड में बस इतना ही। धन्यवाद श्रोताओं! आशा है आपको यह कहानी पसंद आई होगी। हमारे अगले एपिसोड में फिर मिलेंगे एक नई कहानी के साथ। तब तक के लिए, नमस्ते!

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