सचेतन 2.108 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – पवनपुत्र हनुमान जी की अद्भुत यात्रा

SACHETAN  > Sundarkand >  सचेतन 2.108 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – पवनपुत्र हनुमान जी की अद्भुत यात्रा

सचेतन 2.108 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – पवनपुत्र हनुमान जी की अद्भुत यात्रा

| | 0 Comments

हनुमान की अद्वितीय उड़ान

नमस्ते और स्वागत है  सचेतन के इस विचार के सत्र में। आज की कहानी में हम सुनेंगे पवनपुत्र हनुमान जी की अद्भुत यात्रा, जब उन्होंने लंका पूरी से समुद्र को लांघकर अपने मित्रों से मिलने का साहसिक कार्य किया। हनुमान जी, पंखधारी पर्वत के समान वेगशाली, बिना थके और बिना रुके उस सुंदर आकाश को पार करने लगे, जो नाग, यक्ष, और गंधर्वों से भरा हुआ था। आकाशरूपी समुद्र में चंद्रमा कुमुद के समान और सूर्य जलकुक्कुट के समान थे।

हनुमान जी आकाश में उड़ते हुए, चंद्रमंडल को नखों से खरोंचते हुए, नक्षत्रों और सूर्य मंडल सहित आकाश को समेटते हुए और बादलों के समूह को खींचते हुए-से अपार महासागर को पार करने लगे।

सफेद, लाल, नीले, मंजीठ के रंग के, हरे और अरुण वर्ण के बड़े-बड़े मेघ आकाश में शोभा पा रहे थे। हनुमान जी उन मेघ-समूहों में प्रवेश करते और बाहर निकलते थे, जिससे वे कभी दिखते और कभी अदृश्य हो जाते थे। इस प्रकार, वे आकाश में बादलों की आड़ में छिपते और प्रकाशित होते चंद्रमा के समान प्रतीत हो रहे थे।

महातेजस्वी हनुमान जी अपने महान सिंहनाद से मेघों की गंभीर गर्जना को भी मात करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने प्रमुख राक्षसों को मारकर अपना नाम प्रसिद्ध किया था और लंका नगरी को व्याकुल तथा रावण को व्यथित कर दिया था।

सीता माता को नमस्कार करके वे तीव्र गति से पुनः समुद्र के मध्यभाग में आ पहुँचे। वहाँ पर्वतराज मैनाक का स्पर्श करके वे पराक्रमी एवं महान वेगशाली वानरवीर धनुष से छूटे हुए बाण की भाँति आगे बढ़ गये। उत्तर तट के निकट पहुँचते ही महाकपि ने मेघ के समान जोर से गर्जना की और दसों दिशाओं को कोलाहलपूर्ण कर दिया।

फिर वे अपने मित्रों को देखने के लिए उत्सुक होकर उनके विश्रामस्थान की ओर बढ़े और जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे। उनके गर्जन की आवाज सुनकर वानर-भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई।

जाम्बवान ने सभी वानरों को निकट बुलाकर कहा, “हनुमान जी ने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है। कृतकार्य हुए बिना उनकी ऐसी गर्जना नहीं हो सकती।”

हनुमान जी की भुजाओं और जाँघों का महान वेग देख तथा उनका सिंहनाद सुनकर सभी वानर हर्ष में भरकर इधर-उधर उछलने-कूदने लगे।

इस प्रकार, हनुमान जी ने अपनी अद्वितीय शक्ति और साहस का प्रदर्शन किया और अपने मित्रों को पुनः मिलकर आनंदित किया

हनुमान जी को देखने की इच्छा से प्रसन्न वानर एक वृक्ष से दूसरे वृक्षों पर और एक शिखर से दूसरे शिखरों पर चढ़ने लगे। ऊंची शाखाओं पर खड़े होकर वे प्रीतियुक्त वानर अपने स्पष्ट दिखायी देने वाले वस्त्र हिलाने लगे। जैसे पर्वत की गुफाओं में अवरुद्ध हुई वायु बड़े जोर से शब्द करती है, उसी प्रकार बलवान् पवनकुमार हनुमान ने गर्जना की।

मेघों की घटा के समान पास आते हुए महाकपि हनुमान को देखकर सभी वानर उस समय हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तत्पश्चात्, पर्वत के समान विशाल शरीरवाले वेगशाली वीर वानर हनुमान जो अरिष्ट पर्वतसे उछलकर चले थे, वृक्षों से भरे हुए महेन्द्र गिरि के शिखर पर कूद पड़े। हर्ष से भरे हुए हनुमान जी पर्वत के रमणीय झरने के निकट पंख कटे हुए पर्वत के समान आकाश से नीचे आ गये।

सभी श्रेष्ठ वानर प्रसन्नचित्त हो महात्मा हनुमान जी को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। उन्हें घेरकर खड़े होने से उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सब वानर प्रसन्नमुख होकर तुरंत के आये हुए पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान के पास भाँति-भाँति की भेंट-सामग्री तथा फल-मूल लेकर आये और उनका स्वागत-सत्कार करने लगे। कोई आनन्दमग्न होकर गर्जने लगे, कोई किलकारियाँ भरने लगे और कितने ही श्रेष्ठ वानर हर्ष से भरकर हनुमान जी के बैठने के लिये वृक्षों की शाखाएँ तोड़ लाये।

महाकपि हनुमान जी ने जाम्बवान् आदि वृद्ध गुरुजनों तथा कुमार अङ्गद को प्रणाम किया। फिर जाम्बवान् और अङ्गद ने भी आदरणीय हनुमान जी का आदर-सत्कार किया तथा दूसरे-दूसरे वानरों ने भी उनका सम्मान करके उनको संतुष्ट किया। तत्पश्चात् उन पराक्रमी वानरवीर ने संक्षेप में निवेदन किया—’मुझे सीता देवी का दर्शन हो गया’।

‘जनकनन्दिनी सीता लंका के अशोकवन में निवास करती हैं। वहीं मैंने उनका दर्शन किया है।’

अत्यन्त भयंकर आकारवाली राक्षसियाँ उनकी रखवाली करती हैं। साध्वी सीता बड़ी भोली-भाली हैं। वे एक वेणी धारण किये वहाँ रहती हैं और श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये बहुत ही उत्सुक हैं। उपवास के कारण बहुत थक गयी हैं, दुर्बल और मलिन हो रही हैं तथा उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये हैं।

हनुमान जी के मुख से यह शुभ संवाद सुनकर सब वानर बड़े प्रसन्न हुए। कोई हर्षनाद और कोई सिंहनाद करने लगे। दूसरे महाबली वानर गर्जने लगे। कितने ही किलकारियाँ भरने लगे और दूसरे वानर एक की गर्जना के उत्तर में स्वयं भी गर्जना करने लगे। बहुत-से कपिकुञ्जर हर्ष से उल्लसित हो अपनी पूँछ ऊपर उठाकर नाचने लगे। कितने ही अपनी लम्बी और मोटी पूँछें घुमाने या हिलाने लगे।

हनुमान जी की उपर्युक्त बात सुनकर अङ्गद ने उस समय समस्त वानरवीरों के बीच में यह परम उत्तम बात कही- ‘’वानरश्रेष्ठ! बल और पराक्रम में तुम्हारे समान कोई नहीं है; क्योंकि तुम इस विशाल समुद्र को लाँघकर फिर इस पार लौट आये। कपिशिरोमणे! एकमात्र तुम्हीं हमलोगों के जीवनदाता हो। तुम्हारे प्रसाद से ही हम सब लोग सफलमनोरथ होकर श्रीरामचन्द्रजी से मिलेंगे।’

तत्पश्चात् सभी श्रेष्ठ वानर समुद्रलङ्घन, लंका, रावण एवं सीता के दर्शन का समाचार सुनने के लिये एकत्र हुए तथा अङ्गद, हनुमान् और जाम्बवान् को चारों ओर से घेरकर पर्वत की बड़ी-बड़ी शिलाओं पर आनन्दपूर्वक बैठ गये। वे सब-के-सब हाथ जोड़े हुए थे और उन सबकी आँखें हनुमान जी के मुख पर लगी थीं। जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में देवताओं द्वारा सेवित होकर बैठते हैं, उसी प्रकार बहुतेरे वानरों से घिरे हुए श्रीमान् अङ्गद वहाँ बीच में विराजमान हुए।

कीर्तिमान् एवं यशस्वी हनुमान जी तथा बाँहों में भुजबंद धारण किये अङ्गद के प्रसन्नतापूर्वक बैठने से वह ऊँचा एवं महान् पर्वतशिखर दिव्य कान्ति से प्रकाशित हो उठा। इस प्रकार, वानरों ने हनुमान जी के अद्भुत पराक्रम का स्वागत किया और आशा की कि अब श्रीराम और सीता का मिलन निकट है।यह थी हमारी आज की कहानी, हनुमान जी के अद्भुत पराक्रम की। हमें उम्मीद है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी। अगले एपिसोड में फिर मिलेंगे, तब तक के लिए नमस्ते!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *