सचेतन 2.80: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान जी की आत्मकथा
अपने मन में चल रहे विचारों से भय और चिंताओं का सामना करना।
कपिवर हनुमान जी ने सीता जी से कहा “आपको पीठ पर बैठाकर मैं समुद्र को लाँघ जाऊँगा।देवि! विदेहनन्दिनि! आप मेरे साथ चलकर लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी का शोक दूर कीजिये’’।
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।
तब ( उसे देखकर ) सीता जी के मन मे विश्र्वास हुआ । हनुमान् जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया।
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।
हे माता ! सुनो , वानरो मे बहुत बल-बुद्धि नही होती, परन्तु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरूड़ को खा सकता है ( अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है ) सीता जी कहती है की “कपिश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ मेरा जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है; क्योंकि तुम्हारा वेग वायु के वेग के समान तीव्र है। जाते समय यह वेग मुझे मूर्च्छित कर सकता है।मैं समुद्र के ऊपर-ऊपर आकाश में पहुँच जाने पर अधिक वेग से चलते हुए तुम्हारे पृष्ठभाग से नीचे गिर सकती हूँ। इस तरह समुद्र में, जो तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्यों, नाकों और मछलियों से भरा हुआ है, गिरकर विवश हो मैं शीघ्र ही जल-जन्तुओं का उत्तम आहार बन जाऊँगी। इसलिये शत्रुनाशन वीर! मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगी। एक स्त्री को साथ लेकर जब तुम जाने लगोगे, उस समय राक्षसों को तुम पर संदेह होगा, इसमें संशय नहीं है।
मुझे हर कर ले जायी जाती देख दुरात्मा रावण की आज्ञा से भयंकर पराक्रमी राक्षस तुम्हारा पीछा करेंगे। वीर! उस समय मुझ-जैसी रक्षणीया अबला के साथ होने के कारण तुम हाथों में शूल और मुद्गर धारण करने वाले उन शौर्यशाली राक्षसों से घिरकर प्राण संशय की अवस्था में पहुँच जाओगे।आकाश में अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से राक्षस तुम पर आक्रमण करेंगे और तुम्हारे हाथ में कोई भी अस्त्र न होगा। उस दशा में तुम उन सबके साथ युद्ध और मेरी रक्षा दोनों कार्य कैसे कर सकोगे?
कपिश्रेष्ठ! उन क्रूरकर्मा राक्षसों के साथ जब तुम युद्ध करने लगोगे, उस समय मैं भय से पीड़ित होकर तुम्हारी पीठ से अवश्य ही गिर जाऊँगी। कपिश्रेष्ठ! यदि कहीं वे महान् बलवान् भयानक राक्षस किसी तरह तुम्हें युद्ध में जीत लें अथवा युद्ध करते समय मेरी रक्षा की ओर तुम्हारा ध्यान न रहने से यदि मैं गिर गयी तो वे पापी राक्षस मुझ गिरी हुई अबला को फिर पकड़ ले जाएँगे।
अथवा वानर शिरोमणि! यदि राक्षसों की अधिक डाँट पड़ने पर मेरे प्राण निकल गये तो फिर तुम्हारा यह सारा प्रयत्न निष्फल ही हो जायगा।
आज का यह विचार एक अनुभव को साझा करता है और हम इन प्रसंग में हनुमान जी की आत्मकथा सुन रहे हैं, जहां वे अपने भय और चिंताओं को सामना करते हैं और उनके मन में चल रहे विचारों को जानते हैं। यही हनुमान जी की आत्मकथा है।
फिर सीता जी ने कहा हनुमान: “यद्यपि तुम भी सम्पूर्ण राक्षसों का संहार करने में समर्थ हो तथापि तुम्हारे द्वारा राक्षसों का वध हो जाने पर श्रीरघुनाथजी के सुयश में बाधा आएगी (लोग यही कहेंगे कि श्रीराम स्वयं कुछ भी न कर सके) ‘अथवा यह भी संभव है कि राक्षस लोग मुझे ले जाकर किसी ऐसे गुप्त स्थान में रख दें, जहाँ न तो वानरों को मेरा पता लगे और न श्रीरघुनाथजी को ही।
यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिये किया गया तुम्हारा यह सारा उद्योग व्यर्थ हो जाएगा। यदि तुम्हारे साथ श्रीरामचंद्रजी यहाँ पधारें तो उनके आने से बहुत बड़ा लाभ होगा॥ ‘महाबाहो! अमित पराक्रमी श्री रघुनाथजी को, उनके भाइयों का, तुम्हारा तथा वानर राज सुग्रीव के कुल का जीवन मुझ पर ही निर्भर है॥
शोक और संताप से पीड़ित हुए वे दोनों भाई जब मेरी प्राप्ति की ओर से निराश हो जाएंगे, तब सम्पूर्ण रीछों और वानरों के साथ अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥
वानर श्रेष्ठ! (तुम्हारे साथ न चल सकने का एक प्रधान कारण और भी है—) वानरवीर! पति भक्ति की ओर दृष्टि रखकर मैं भगवान श्रीराम के सिवा दूसरे किसी पुरुष के शरीर का स्वेच्छा से स्पर्श करना नहीं चाहती।
रावण के शरीर से जो मेरा स्पर्श हो गया है, वह तो उसके बलात् हुआ है उस समय मैं असमर्थ, अनाथ और बेबस थी, क्या करती?
यदि श्रीरघुनाथजी यहाँ राक्षसों सहित दशमुख रावण का वध करके मुझे यहाँ से ले चलें तो वह इसके योग्य कार्य होगा। मैंने युद्ध में शत्रुओं का मर्दन करने वाले महात्मा श्री राम के पराक्रम अनेक बार देखे और सुने हैं। देवता, गन्धर्व, नाग और राक्षस सब मिलकर भी संग्राम में उनकी समानता नहीं कर सकते।
युद्धस्थल में विचित्र धनुष धारण करने वाले इन्द्र तुल्य पराक्रमी महाबली श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण के साथ रह वायु का सहारा पाकर प्रज्वलित हुए अग्नि की भाँति उद्दीप्त हो उठते हैं। उस समय उन्हें देखकर उसका वेग कौन सह सकता है?
वानर शिरोमणि! समरांगण में अपने बाण रूपी तेज से प्रलय कालीन सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले और मतवाले दिग्गज की भाँति खड़े हुए रणमर्द श्री राम और लक्ष्मण का सामना कौन कर सकता है?
इसलिये कपिश्रेष्ठ! वानरवीर! तुम प्रयत्न करते यूथपति सुग्रीव और लक्ष्मण सहित मेरे प्रियतम श्री रामचन्द्रजी को शीघ्र यहाँ बुला ले आओ। मैं श्रीराम के लिये चिरकाल से शोकाकुल हो रही हूँ। तुम उनके शुभागमन से मुझे हर्ष प्रदान करो’ ॥