सचेतन 111 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- तत्पुरुष रूप से हमारे सुख और दुख के कारण का बोध होता है।
मनुष्य जो कुछ भी करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है। यह फल शुभ, अशुभ अथवा दोनों से भिन्न होता है। फल का यह रूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। दान शुभ कर्म है पर हिंसा अशुभ कर्म है। कभी कभी यह बात इस भावना पर आधारित होता है कि क्रिया सर्वदा फल के साथ संलग्न होती है। क्रिया से फल अवश्य उत्पन्न होता है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं का इसमें समावेश नहीं है। आँख की पलकों का उठना, गिरना भी क्रिया है, परन्तु इससे फल नहीं उत्पन्न होता।
हम सभी यही कहते हैं की उस व्यक्ति का परिचय या स्वभाव मनुष्य, देव, राजा, असुर, जानवर आदि प्रकर का है। अगर हम इस पहचान के साथ जीते हैं तो वह पहचान हमारे कर्मो से है। व्यक्ति नरक, असुर, प्रेत, पशुयोनी, मनुष्ययोनी, देवयोनि, ब्रहमयोनी अथवा मुक्ति पाने की बात करता है। यह सारा जीवन यानी योनि हमारे नाना प्रकार के कर्म के कारण या यूँ कहें हम अपने कर्मों के ही कारण प्राणी भिन्न भिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते है ।
शिव जी का तत्पुरुष अवतार में करण का भाव यह बताता है की हमको पूर्व में किए गये कर्म का बोध होता है और उसमें ही करण या कारण के कारक छिपे होते हैं। जब आपको स्वयं बोध होने लगे की वर्तमान में हमारा परिचय या स्वभाव मनुष्य, देव, राजा, असुर, जानवर आदि प्रकर से हो रहा है तो आप उसका कारण या करण ज़रूर खोजिए। हम जिस भी कर्म से जो भी पहचान के साथ जी रहे हैं तो उस पहचान का कारण है। हमारे सुख और दुख किसी कारण से या किसी के द्वारा होता है इसका बोध कीजिए।
अगर कोई व्यक्ति प्राणियों की हत्या करना, बंधक बनाना, चोरी करना, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार करना, झूठ बोलना, ठगना, लूट-पाट करना, नशा करना, व्यर्थ बोलना, कठोर बोलना, माता–पिता व बड़ो का अनादर करना, लोभी व द्वेषी होना, आग लगाना, उलटी-दृष्टि वाला होना, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझना, नरक में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
जब मनुष्य को क्रोधी, हिंसक, चंड, कुटिल बुद्धि का होना, नशे का आदि होना, किन्तु निरंतर दान देने में आनंद मानना आदि भावना या कर्म का सहारा लेना होता है तो वो असुर योनी में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
अगर किसी की आदत चोरी करना, दूसरे की सम्पति हड़पना, अत्यंत चंड होना, पशु-पक्षियों से दरिंदगी करना, व्यर्थ बोलना, कठोर बोलना, अत्यंत लालची व द्वेषी होना, अत्यंत कंजूस होना, दान न देना व दूसरो को भी दान देने से रोकना प्रेत योनी में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
मनुष्य अगर अत्याधीक लोभी हो जाये, अत्याधीक द्वेष करना शुरू कर दे, अभिमानी होना, अति कामी /वासनांध होना, धर्म के प्रति मूढ़ होना, मुर्ख होना, पशु-पक्षियों को बंधन में रखना व उनकी हिंसा करना, विकृत मानसिकता का होना, निर्ल्लज होना, असंतुष्ट व जिद्दी होना, आत्ममोह में डूबा होना कंजूस होना व दान न देना, नाना पशु योनी में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
जब कोई व्यक्ति अत्यधिक मादक पदार्थों का सेवन करने लगे तो अगला जन्म पशुयोनी में या प्रेतयोनी में हो सकता हैं । पशुयोनी में होने पर भी, जो पशु दुर्गंधीयुक्त जगहों पर रहना पसंद करते हैं, दुर्गंधीयुक्त पदार्थ पसंद करते हैं, ऐसे पशुलोक में।
अत्यधिक पुन्य व अल्प पाप कर्म करना, प्राणि-हिंसा न करना, चोरी न करना, काम-भोग सम्बन्धी मिथ्याचार न करना, झूठ न बोलना, चुगली न खाना, कठोर न बोलना, व्यर्थ न बोलना, निर्लोभी होना, द्वेषी-रहित होना, सम्यक-दृष्टि वाला होना, दान देना, शील का पालन करना, माता-पिता की सेवा करना, नाना प्रकार से लोक-कल्याण के कार्य करना मनुष्य योनी में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
जो व्यक्ति देवता बनने की कामना रखता हो उसे पहले धरती पर ही देव गुणों का अभ्यास कर देव समान बनना होगा, तभी वह मर कर भी देवता बन पायेगा ।
असीम पुन्य करना, अल्प पाप में भी दोष मानना, मन, वाणी व शारीर से निर्दोष कर्म करना, क्रोध न करना, झूठ न बोलना, मांगे जाने पर थोडा होने पर भी दान देना, अपने सुख को छोड़ दुसरो के मंगल के लिए कर्म करना, वाद-विवाद व झगड़ो से दूर रहना, बुद्धिमान होना, धर्म का दृढ़ता से पालन करना, शीलवान होना, आत्म-संयम करना, आज्ञाकारी होना, सम्यक आचरण करना, प्राणियों के प्रति दया-भाव रखना आदि नाना देवयोनियो में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।
मन, वाणी व शारीर से निर्दोष होना, काम-क्रोध मुक्त होना, ध्यान-साधना के बल से पहले से आठवे ध्यान का अभ्यासी होना, नाना ब्रहमलोको में उत्पन्न होने के प्रमुख कारण है।