सचेतन 216: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हम सभी विराट रूप से आवृत हैं 

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सचेतन 216: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हम सभी विराट रूप से आवृत हैं 

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जीव स्वत: शिव हो जाता है जब वह विशुद्ध शिवत्व को समझता है 

हमने सचेतन में बातचीत किया था की आपके अपने शरीर में उपस्थित मन, बुद्धि, अहंकार और माया शक्ति यानी प्राकृति से व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। आपके   व्यक्तित्त्व आपकी सोच से आपके इस शरीर का रूप बहुत व्यापक यानी फैला हुआ और अत्यंत विशाल भी है। 

आपने विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप की प्रचलित कथा भगवद्गीता के अध्याय ११ को सुना होगा और उसको ध्यान भी करें, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं। यह युद्ध कौरवों तथा पाण्डवों के बीच राज्य को लेकर हुआ था। परंतु विश्वरूप दर्शन राजा बलि आदि ने भी किया है।

भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है–

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।

अर्थात् हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो। मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ।

विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप। यह रूप इतना विराट है की भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं। जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा।

हम सभी को पूरी तरह से अपने इस शरीर का ज्ञान होना संभव है लेकिन हम कैसा रूप देखना चाहते हैं वह हमारे शरीर में हो रहे शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित है। 

आपके विचार और कर्म ही आपकी माया है जिसका नाम प्रकृति है।हम सभी का विराट रूप या विश्वरूप माया से आवृत है जिसका संबंध हमारे मन और कर्म के द्वारा प्रकृति और पुरुष के साथ होता है। मन और कर्म  इन दोनों के प्रेरक ईश्वर शिव हैं। माया यानी आपकी प्रकृति महेश्वर की शक्ति है। जिस दिन आप अपनी चित्स्वरूप प्रकृति महेश्वर की शक्ति जो माया से आच्छादित हो कर अज्ञानमय रहता है उसको शुद्ध करेंगे तो आपका  जीव स्वत: शिव हो जाएगा। वह विशुद्ध ही शिवत्व है।

यह कथा मैं आप सभी को शिवपुराण- वायवीय संहिता से सुना रहा हूँ जिसमें वायुदेव को मुनियों ने पूछा की -सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है? 

वायुदेवता बाले-व्यापक तत्त्व को भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं। भोग के लिये किया गया कर्म ही उस आवरण में कारण है। मल का नाश होने से वह आवरण दूर जाता है। कला, विद्या, राग, काल और नियति-इन्हीं को कला आदि कहते हैं। कर्मफल का जो उपभोग करता है, उसी का नाम पुरुष (जीव) है।
प्रश्न है की सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है? 

इसका उत्तर मुझे लगता है की साधारण सा उदाहरण ही आपके सामने रखूँ तो आपको समझ में आएगी को कोई व्यक्ति मुझे कह रहा था की यदि मैं सचेतन में आता हूँ तो ‘मुझे शांति का अनुभव होता है’ और कभी कभी तो ध्यान में मैं लीन हो कर प्रभु से मिलाता हूँ। यह  उदाहरण और अनुभव आपके 5 इंद्रियों से परे है, ना सुनकर ना बोलकर ना देखकर या नहीं महसूस कर हो सकता है। मेरा मानना है  प्रभु या ब्रह्म से बेहतर शब्द शांति है। यह सच है कि आप प्रभु, भगवान, आल्हा और ब्रह्म को परिभाषित नहीं कर सकते हैं इनका ज्ञाता कोई और नहीं बल्कि ये ख़ुद हैं। और यह आनंद स्वरूप है, लेकिन आप इसका अनुभव करने के लिए अलग नहीं हैं। 

किसी भी चीज़ को देखने, अनुभव करने या देखने के लिए उसके प्रति सचेत रहना पड़ता है। उदाहरण के लिए, एक कार देखने के लिए, आपकी चेतना भौतिक शरीर में होनी चाहिए, अन्यथा यदि आप दिवास्वप्न देख रहे हैं, तो भले ही कार आपके सामने हो, आप उसे नहीं देख सकते। उसी तरह अनुभव करने या साक्षी बनने के लिए चेतना का मौजूद रहना जरूरी है यानी ‘अवलोकन की वस्तु’ के प्रति जागरूक रहना होगा। 

अगर आप अवलोकन करते करते वस्तु पर्यवेक्षक में विलीन हो जाएँगे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी केवल शुद्ध चेतना रह जाती है। परन्तु वस्तु विलीन कैसे हो सकती है। क्योंकि यह सिर्फ एक मानसिक प्रक्षेपण है, माया के भ्रम के कारण एक गलत धारणा।

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