सचेतन, पंचतंत्र की कथा-38 : लोहे की तराजू और बनिए की कथा-2

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करटक ने दमनक को समझाते हुए कहा कि मूर्ख व्यक्ति अपनी कुबुद्धि और स्वार्थ के कारण अक्सर ऐसा कार्य कर बैठता है, जिससे दूसरों का नुकसान होता है और अंततः वह स्वयं भी नष्ट हो जाता है। उसने जोर दिया कि किसी भी उपाय को अपनाने से पहले उसके खतरों और परिणामों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। अधूरी योजनाएँ और मूर्खता हमेशा विनाश का कारण बनती हैं। इसी संदर्भ में, करटक ने एक नई कथा सुनानी शुरू की—“लोहे की तराजू और बनिए की कथा”।

इस कहानी में जीर्णधन नाम का एक बनिया था, जिसे व्यापार में घाटा होने के कारण अपना नगर छोड़कर विदेश जाने का निर्णय लेना पड़ा। उसने सोचा कि जिस स्थान पर उसने कभी अभिमान और सुखपूर्वक जीवन बिताया हो, वहाँ गरीबी में रहना उचित नहीं। देसावर जाने से पहले उसने अपनी पुश्तैनी लोहे की तराजू एक सेठ के पास सुरक्षित रख दी। जब वह वर्षों बाद लौटा और अपनी तराजू मांगी, तो सेठ ने झूठ बोल दिया कि चूहों ने तराजू खा ली। जीर्णधन ने शांति और चालाकी से इसका उत्तर दिया, और अपनी सूझ-बूझ से सेठ के झूठ को पकड़ने के लिए एक योजना बनाई। कहानी यहाँ पर उस मोड़ पर पहुँचती है, जहाँ जीर्णधन की बुद्धिमत्ता से सच्चाई सामने आती है।

खुशी-खुशी उस सेठ का लड़का नहाने का सामान लेकर अतिथि के साथ चला। इसके बाद जीर्णधन बनिए ने स्नान करके उस लड़के को नदी किनारे की एक गुफा में छिपा दिया और उसका दरवाजा एक बड़े पत्थर से ढांक कर जल्दी से घर लौट आया।

जब सेठ ने देखा कि उसका बेटा घर नहीं लौटा तो उसने बनिए से पूछा – “हे अतिथि! मेरा पुत्र तुम्हारे साथ नदी पर गया था, वह कहां है?”

जीर्णधन ने शांतिपूर्वक कहा – “नदी के किनारे से उसे बाज झपटकर ले गया।”

यह सुनकर सेठ गुस्से में बोला – “अरे झूठे! कहीं बाज भी बच्चे को उठा सकता है? तू मेरे बेटे को लौटा, नहीं तो मैं राज-दरबार में शिकायत करूंगा।”

इस पर जीर्णधन ने कहा –“सेठजी! जैसे बाज लड़के को उठा नहीं सकता, उसी तरह चूहे भी हजार भर लोहे की बनी तराजू नहीं खा सकते। इसलिए अगर तुम अपने बेटे को वापस पाना चाहते हो, तो मेरी तराजू लौटा दो।”

यह सुनकर दोनों में झगड़ा होने लगा और आखिरकार वे दोनों राज-दरबार पहुंचे।

राज-दरबार में सेठ ने ऊंची आवाज में चिल्लाकर कहा – “अब्रह्मण्यम्! अब्रह्मण्यम्! इस चोर ने मेरे बेटे को चुरा लिया है।”

दरबार के धर्म अधिकारियों ने बनिए से पूछा – “अरे बनिए! इस सेठ के लड़के को लौटा दो।”

जीर्णधन ने उत्तर दिया – “मैं क्या करूं? मैं देख ही रहा था कि नदी के किनारे से बाज लड़के को झपटकर ले गया।”

यह सुनकर सेठ ने चिल्लाकर कहा – “अरे! तू सच नहीं कहता। क्या बाज भी बालक को उठा ले जाने में समर्थ हो सकता है?”

तब जीर्णधन ने बड़ी शांति से कहा – “राजन्! जहां चूहे हजार भर की लोहे की तराजू खा सकते हैं, वहां अगर बाज बालक को उठा ले जाए तो इसमें क्या शक है?”

यह सुनकर दरबार के सभ्यों ने आश्चर्य से पूछा –“यह कैसे संभव है?”

तब बनिए ने सभाओं के सामने पूरी सच्चाई बताई। उसने शुरू से अंत तक बताया कि कैसे सेठ ने उसकी तराजू चूहों द्वारा खाए जाने की झूठी बात कही और उसने सेठ के बेटे को गुफा में छिपा दिया था।

यह सब सुनकर दरबार में सभी लोग हंसने लगे। अधिकारियों ने दोनों को न्याय दिलाया:

  1. सेठ को उसकी चोरी की गई तराजू लौटाने का आदेश दिया।
  2. बनिए को सेठ का बेटा वापस करने के लिए कहा।

नैतिक शिक्षा:

  1. झूठ और चालाकी से कभी फायदा नहीं होता, क्योंकि सच्चाई सामने आ ही जाती है।
  2. न्याय और बुद्धिमत्ता से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है।
  3. बिना सोचे-समझे दूसरों पर आरोप लगाने के बजाय सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए।

इस प्रकार जीर्णधन ने अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से न केवल अपनी तराजू वापस पाई बल्कि सेठ के झूठ को भी बेनकाब कर दिया।

इस संसार में अधिकतर छोटे कुल वाले अच्छे कुल वाले की, बदनसीब लक्ष्मी के कृपापात्र की, कंजूस दाता की, कुटिल जन भोले आदमी की, निर्धन घनिक की, बदसूरत रूपवान की, पापी धर्मात्मा की तथा मूर्ख विविध शास्त्रों के विद्वान पुरुष की निन्दा करते हैं।

उसी प्रकार मूर्खगण पंडितों से द्वेष करते हैं, निर्धन धनवानों से द्वेष करते हैं, पापी व्रत करने वालों से द्वेष करते हैं, और कुलटाएं पतिव्रताओं से द्वेष करती हैं।

हे मूर्ख! हित करते हुए भी तूने अहित किया है। कहा गया है कि “पंडित शत्रु अच्छा है, पर मूर्ख हितैषी अच्छा नहीं है।

बंदर ने राजा का नाश किया पर चोर ने ब्राह्मण की रक्षा की।”

दमनक ने कहा, “यह कैसे?” करटक कहने लगा…

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