सचेतन: ज्ञान योग-6: माया की भूमिका
माया एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘जो नहीं है’ या ‘भ्रम’। अद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही सत्य है, जो कि एक अनंत, अव्यक्त, और निराकार सत्ता है। माया उस पर्दे की तरह है जो ब्रह्म और जीवात्मा के बीच में होती है, जिससे जीवात्मा खुद को ब्रह्म से अलग और भिन्न समझती है।
माया और अविद्या का संबंध
माया वह शक्ति है जो अविद्या को जन्म देती है। अविद्या यहाँ ज्ञान की अनुपस्थिति को दर्शाती है, जो आत्मा को यह भ्रम देती है कि वह शारीरिक और मानसिक विशेषताओं वाला एक व्यक्ति है। इस भ्रांति के कारण ही जीव जन्म, मृत्यु, और पुनर्जन्म के चक्र में फंसा रहता है।
अविद्या की अवधारणा
अविद्या, जो संस्कृत में “अज्ञान” या “ज्ञान की अनुपस्थिति” का प्रतीक है, भारतीय दर्शन, विशेषकर वेदांत और सांख्य दर्शन में एक महत्वपूर्ण संकल्पना है। अविद्या को वास्तविकता की सच्ची प्रकृति को न समझ पाने की स्थिति के रूप में देखा जाता है, जिससे व्यक्ति सांसारिक मोह और दुखों का अनुभव करता है। अविद्या का मुख्य विचार यह है कि यह मानवीय समझ की सीमाओं को दर्शाता है और यह बताता है कि कैसे वास्तविक ज्ञान की अनुपस्थिति में मनुष्य भ्रम और दुखों का अनुभव करता है।
एक कहानी: अंधेरे गुफा का रहस्य
एक समय की बात है, एक गांव के पास एक बड़ी और गहरी गुफा थी। गांव वाले इस गुफा से बहुत डरते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उसमें एक भयानक दानव रहता है जो किसी को भी अंदर जाने पर पकड़ लेता है। इस भय के कारण, गांव के लोग कभी भी गुफा के नजदीक नहीं जाते थे।
एक दिन, एक बुद्धिमान साधु उस गांव में आया और गुफा के बारे में सुना। उसने सोचा कि यह अविद्या का प्रतीक है, और उसने तय किया कि वह गुफा का रहस्य जानेगा।
साधु ने एक मशाल ली और गुफा के अंदर प्रवेश किया। जैसे ही वह अंदर गया, उसने देखा कि गुफा में कोई दानव नहीं था, बल्कि एक सुंदर झील थी जिसमें चमकदार पत्थर जगमगा रहे थे। ये पत्थर इतने चमकीले थे कि जब भी पानी में पत्थर गिरता, तो प्रतिबिंब की वजह से ऐसा लगता कि कोई जीव हिल रहा है।
साधु गांव लौटा और उसने सभी गांव वालों को बताया कि उनका डर अज्ञानता का परिणाम था। उसने उन्हें समझाया कि जब तक वे स्वयं जांच नहीं करते और सच्चाई का पता नहीं लगाते, तब तक वे अपने भय में बंधे रहेंगे।
इस कहानी के माध्यम से, साधु ने गांव वालों को यह सिखाया कि अविद्या यानी अज्ञानता से मुक्ति पाने के लिए उन्हें खुद से ज्ञान की खोज करनी चाहिए।
वेदांत में अविद्या
वेदांत दर्शन में अविद्या को ब्रह्मांडीय भ्रम के रूप में माना जाता है, जो ब्रह्म (अनंत चेतना) और आत्मा की वास्तविक एकता को छिपाती है। इसके कारण व्यक्ति आत्मा और शरीर के बीच के भेद को नहीं पहचान पाता और सांसारिक जीवन के चक्र में फँसा रहता है।
वेदांत दर्शन में अविद्या उस भ्रांति को दर्शाती है जिसके कारण जीवात्मा अपने असली स्वरूप से अनजान रहती है और सांसारिक दुनिया के मोह में फँसी रहती है। यह विचार अद्वैत वेदांत की मूल धारणाओं में से एक है, जिसे आदि शंकराचार्य ने प्रमुखता से प्रस्तुत किया।
ब्रह्म और जीवात्मा का एकत्व
वेदांत कहता है कि समस्त ब्रह्मांड और उसमें मौजूद प्रत्येक जीव ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं, और वास्तव में सब कुछ ब्रह्म ही है। यहां ब्रह्म का अर्थ है परम सत्ता, जो अनंत, अविनाशी और अपरिवर्तनीय है। जब जीवात्मा इस तथ्य को नहीं समझ पाती कि वह ब्रह्म का ही एक अंश है, तो उसे अविद्या की स्थिति कहा जाता है।
अविद्या के प्रभाव
इस अविद्या के कारण, जीवात्मा खुद को शरीर और मन के साथ एकाकार मान लेती है और उसकी पहचान इसी से बन जाती है। यह भ्रम सांसारिक बंधनों को जन्म देता है जैसे कि इच्छा, क्रोध, लोभ और अहंकार जो कि दुःख और व्यथा के मुख्य कारण हैं। ये भावनाएँ और ताप व्यक्ति को अधिक से अधिक सांसारिक क्रियाओं में उलझाते हैं।
अविद्या का निवारण
वेदांत दर्शन अविद्या के निवारण के लिए ज्ञान-मार्ग को अपनाने की सलाह देता है। ज्ञान योग के द्वारा जीवात्मा को यह अनुभव होता है कि वास्तविक आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है; यह नित्य, शाश्वत और अविनाशी है। इस तरह के आत्मज्ञान से अविद्या दूर होती है, और जीवात्मा ब्रह्म के साथ अपनी एकता का अनुभव करती है, जिसे मोक्ष या निर्वाण कहा जाता है।
इस प्रकार, वेदांत में अविद्या को न सिर्फ एक बाधा माना जाता है बल्कि इसे दूर करने का मार्ग भी दर्शाया गया है, जिससे आत्मा को उसकी असली, शाश्वत और सर्वव्यापी प्रकृति का बोध हो सके।
माया का निवारण
माया का निवारण ज्ञान के माध्यम से संभव है। जब जीवात्मा को अपनी असली प्रकृति का बोध होता है, तब वह इस माया के प्रभाव से मुक्त हो जाती है। यह बोध या आत्म-ज्ञान उसे सांसारिक मोह और दुखों से मुक्त करता है और उसे ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति कराता है।
इस प्रकार, माया और अविद्या वेदांत दर्शन में जीवात्मा के सांसारिक जीवन और मुक्ति की यात्रा के केंद्रीय तत्व हैं। ये दोनों हमें यह समझने में मदद करते हैं कि जीवन की सांसारिक उलझनों से कैसे पार पाया जा सकता है और कैसे हम अपनी वास्तविक और अंतर्निहित एकता को पहचान सकते हैं।