सचेतन:बुद्धचरितम्-5 “संवेगोत्पत्तिः
संवेगोत्पत्तिः (मोहभंग) (The Genesis of Disenchantment): बुद्ध के मन में वैराग्य की उत्पत्ति का वर्णन है, जब उन्होंने वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु का सामना किया।”मोहभंग” का अर्थ है भ्रांति का दूर होना, अज्ञान का नाश होना या निराशा की भावना। यह तब होता है जब किसी की उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं या जब कोई सच्चाई से अवगत होता है। मोह, बुद्धि का अज्ञान होता है और इसी अज्ञान के कारण मनुष्य भौतिक आकर्षण में फंस जाता है, जब मनुष्य सत् और असत् तथा नित्य एवं अनित्य का भेद जान जाता है तब वो निराशक्त हो जाता है, उसे किसी भी चीज का आकर्षण नही रह जाता।
कहानी बुद्ध के वैराग्य की उत्पत्ति की:
एक समय की बात है, जब राजकुमार सिद्धार्थ अपने महल में सुख-सुविधा से घिरे हुए थे, पर उनका मन कहीं न कहीं असंतुष्ट था। उन्होंने सुना कि वन की सुंदरता बड़ी मनमोहक होती है—कोमल घास, वृक्षों पर कोयल की कूक और कमलों से सजे तालाब। ये सभी विवरण सुनकर उनके मन में वन जाने की तीव्र इच्छा जाग उठी।
राजा, अपने पुत्र की इच्छा जानकर, वनविहार की आज्ञा दे दी। परंतु उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि राजकुमार को रास्ते में कोई दुखदृश्य न दिखे। इसलिए उन्होंने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे रास्ते से सभी बीमार, वृद्ध और गरीब लोगों को हटा दें और रास्ते को सुंदर बना दें।
फिर आया वह दिन जब राजकुमार स्वर्ण के आभूषणों से सज्जित, चार घोड़ों वाले सुनहरे रथ पर सवार होकर निकले। नगर के लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया और महिलाएं अटारियों पर चढ़कर उन्हें देखने लगीं।
परंतु उनकी यात्रा में एक अनोखा मोड़ आया जब दिव्य शक्तियों ने एक वृद्ध पुरुष का निर्माण किया। यह वृद्ध पुरुष झुकी हुई कमर, सफेद बाल और हाथ में लाठी लिए हुए था। राजकुमार ने जब इस वृद्ध को देखा, तो वे स्तब्ध रह गए और अपने सारथी से पूछा कि यह कौन है और यह कैसी स्थिति में है? बुद्ध ने पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी थी, क्योंकि वे हमेशा राजमहल में ही रहे थे जहाँ उन्हें ऐसे दृश्यों से दूर रखा गया था।
बुद्ध ने अपने सारथी से पूछा, “यह कौन है और यह क्यों इस तरह दिखता है?” सारथी ने जवाब दिया, “हे राजकुमार, यह जरावस्था है, जो हर व्यक्ति को आती है। यह रूप को नष्ट कर देती है, बल को कम कर देती है, और स्मृति को भी नष्ट कर देती है।”
बुद्ध ने फिर से सारथी से पूछा, “क्या यह मुझे भी होगा?” सारथी ने उत्तर दिया, “हां, हे आयुष्मन, यह अवस्था किसी को नहीं बख्शती। यह आपको भी निश्चित रूप से आएगी।”
यह सुनकर बुद्ध के मन में गहरा विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने सारथी से रथ को वापस लौटाने को कहा। सारथी ने रथ को वापस लौटाया और वे दोनों महल में लौट आए।
इस घटना ने बुद्ध को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने सोचा कि जब जीवन का अंत इस प्रकार से होना है, तो संसारिक सुखों का क्या महत्व है? यह विचार उनके मन में गहरे बैठ गया और इसी विचार ने उन्हें बाद में वैराग्य की ओर प्रेरित किया। यही वह प्रसंग था जिसने बुद्ध के जीवन को एक नई दिशा दी और वे ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
अपने महल में बैठे ‘जरा-जरा’ की गहराई में विचार कर रहे थे। वे वृद्धावस्था और जीवन की नश्वरता पर चिंतन कर रहे थे, लेकिन उन्हें कोई शांति नहीं मिल रही थी। उनकी यह बेचैनी देखकर राजा ने उन्हें फिर से बाहर जाने की आज्ञा दी, ताकि वे अपने मन को कुछ शांति दे सकें।
बाहर निकलते समय, सिद्धार्थ के रास्ते में देवों द्वारा निर्मित एक दूसरा दृश्य प्रस्तुत किया गया, जहाँ एक व्याधिग्रस्त मनुष्य दुःख से ‘माँ-माँ’ पुकार रहा था। इस दृश्य ने सिद्धार्थ को और भी विचलित कर दिया। उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि यह व्यक्ति कौन है और उसे क्या हुआ है। सारथी ने बताया कि यह व्यक्ति रोग से पीड़ित है, जो सभी धातुओं के प्रकोप से बढ़ा है और इसने इस समर्थ व्यक्ति को भी पराधीन बना दिया है।
सिद्धार्थ ने तब सारथी से पूछा कि क्या यह रोग केवल इसी व्यक्ति को हुआ है या यह सभी को होता है। सारथी ने जवाब दिया कि यह रोग किसी को भी हो सकता है, यह जीवन का एक सामान्य हिस्सा है। यह सुनकर सिद्धार्थ बहुत उद्विग्न हुए और उन्होंने सारथी से कहा कि वे रथ को लौटा दें और वे वापस महल में चले गए।
सिद्धार्थ के महल में वापस आने पर राजा का मन बहुत दुःखी हो गया। उन्हें डर था कि कहीं उनका पुत्र उन्हें छोड़ न दे और संसारिक मोह माया से विरक्त हो जाए। यह विचार उन्हें बहुत परेशान कर रहा था, क्योंकि उनके लिए उनका पुत्र ही उनकी दुनिया था।
एक दिन राजा शुद्धोदन ने फिर से सारथी और रथ को बदलवाया और राजमार्ग को सजाकर और मजबूत कराकर, उसे अच्छी तरह से जाँचने के बाद बाहर भेजा। उसी समय, देवताओं ने एक मृतक का निर्माण किया जिसे केवल राजकुमार सिद्धार्थ और उनके सारथी ने देखा, बाकी किसी ने नहीं।
जब राजकुमार सिद्धार्थ ने चार पुरुषों द्वारा ढोए जा रहे उस व्यक्ति को देखा, तो उन्होंने अपने सारथी से पूछा, “यह कौन है?” सारथी ने जवाब दिया कि यह एक मृत व्यक्ति है, जो बुद्धि, इंद्रियों, प्राण और गुणों से वियुक्त हो चुका है। इसे अब उसके प्रियजन छोड़ रहे हैं।
यह सुनकर राजकुमार ने पूछा, “क्या यह सभी के साथ होता है?” सारथी ने बताया कि हाँ, यह सब प्राणियों का अंतिम कर्म है। चाहे वो उच्च हों या निम्न, हर किसी का विनाश निश्चित है।
यह बात सुनकर राजकुमार सिद्धार्थ के मन में गहरी विचारशीलता उत्पन्न हुई। उन्होंने सोचा कि जब मृत्यु इतनी निश्चित है, तो सांसारिक सुखों का क्या महत्व है? यह विचार उन्हें गहराई से प्रभावित कर गया और उनके मन में वैराग्य की भावना जागृत हुई।
उस वृद्ध के शरीर की कमजोरी और बुढ़ापे की छाया ने राजकुमार के मन में गहरी चिंता और विचार की लहर उत्पन्न की। यह देखकर राजकुमार ने अपने सारथी से कहा कि वह उन्हें वापस महल ले चले।
राजकुमार ने गंभीर स्वर में कहा, “प्राणियों की यह मृत्यु निश्चित है, किंतु भय को छोड़कर लोग भूल कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि मनुष्यों का मन कठिन है, जो इस प्रकार मृत्युपथ पर चलते हुए भी सुखी हैं।” उन्होंने आगे कहा, “अतः हे सुत! यह विहार करने का समय उपयुक्त नहीं, रथ लौटाओ। विनाश को जानता हुआ भी बुद्धिमान विपत्ति काल में विभोर कैसे रह सकता है?”
लेकिन सारथी ने राजा की आज्ञा का पालन करते हुए रथ को नहीं लौटाया और विशेष सुंदरता से युक्त नंदनवन (पभषण्ड) की ओर राजकुमार को ले गया। राजा की इच्छा थी कि राजकुमार विश्व की सुंदरताओं में खोकर अपने वैराग्य के भाव को भूल जाएं और राज्य की भावी जिम्मेदारियों की ओर लौटें।
यह घटना राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जिसने उन्हें अंततः बुद्धत्व की ओर अग्रसर किया। यह प्रसंग बताता है कि किस प्रकार वे विश्व की अस्थायी सुंदरता और विलासिता से ऊपर उठकर जीवन के अधिक गहरे और सार्थक सत्यों की खोज में निकल पड़े।
इस प्रकार, एक साधारण घटना ने एक महान आत्मा के जीवन को बदल दिया और उन्होंने दुनिया को एक नई दिशा दिखाई। यही विचार सिद्धार्थ के वैराग्य और बुद्ध बनने की दिशा में उनके पहले कदम के रूप में उभरा।