सचेतन :59 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: शिव तत्व का वर्णन
सचेतन :59 श्री शिव पुराण- रूद्र संहिता: शिव तत्व का वर्णन
#RudraSamhita
श्री नारद जी शिवजी की भक्ति में डूबे, उनका स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने ब्रह्माजी को आदरपूर्वक नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय शुद्ध हो चुका था और उनके हृदय में शिवजी के प्रति भक्ति भावना ही थी और कुछ नहीं।
नारद जी बोले :- हे पितामह ! आप तो परमब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अच्छी प्रकार से जानते हो। आपकी कृपा से मैंने भगवान विष्णु के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया है एवं भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग, तपो मार्ग, दान मार्ग तथा तीर्थ मार्ग के बारे में जाना है परंतु मैं शिव तत्व के ज्ञान को अभी तक नहीं जान पाया हूं। मैं उनकी पूजा विधि को भी नहीं जानता हूं। अतः अब मैं उनके बारे में सभी कुछ जानना चाहता हूं।
मैं भगवान शिव के विभिन्न चरित्रों, उनके स्वरूप तथा वे सृष्टि के आरंभ में, मध्य में, किस रूप में थे, उनकी लीलाएं कैसी होती हैं और प्रलय काल में भगवान शिव कहां निवास करते हैं? उनका विवाह तथा उनके पुत्र कार्तिकेय के जन्म आदि की कथाएं मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूं। भगवान शिव कैसे प्रसन्न होते है और प्रसन्न होने पर क्या-क्या प्रदान करते हैं? इस संपूर्ण वृत्तांत को मुझे बताने की कृपा करें।
अपने पुत्र नारद की ये बातें सुनकर पितामह ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए।
“ब्रह्माजी द्वारा शिव तत्व का वर्णन”
ब्रह्माजी ने कहा ;– हे नारद! तुम सदैव जगत के उपकार में लगे रहते हो। तुमने जगत के लोगों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से मनुष्य के सब जन्मों के पापों का नाश हो जाता है। उस परमब्रह्म शिवतत्व का वर्णन मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूं। शिव तत्व का स्वरूप बहुत सुंदर और अद्भुत है।
जिस समय महाप्रलय आई थी और पूरा संसार नष्ट हो गया था तथा चारों ओर सिर्फ अंधकार ही अंधकार था, आकाश व ब्रह्माण्ड तारों व ग्रहों से रहित होकर अंधकार में डूब गए थे, सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने बंद हो गए थे, सभी ग्रहों और नक्षत्रों का कहीं पता नहीं चल रहा था, दिन-रात, अग्नि-जल कुछ भी नहीं था। प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गए थे। शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस का अभाव हो गया था, सत्य-असत्य सबकुछ खत्म हो गया था, तब सिर्फ ‘सत्’ ही बचा था। उस तत्व को मुनिजन एवं योगी अपने हृदय के भीतर ही देखते हैं। वाणी, नाम, रूप, रंग आदि की वहां तक पहुंच नहीं है।
उस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से किए गए संबोधन के द्वारा कुछ समय बाद अर्थात सृष्टि का समय आने पर एक से अनेक होने के संकल्प का उदय हुआ। तब उन्होंने अपनी लीला से मूर्ति की रचना की। वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य तथा गुणों से युक्त, संपन्न, सर्वज्ञानमयी एवं सबकुछ प्रदान करने वाली है। यही सदाशिव की मूर्ति है। सभी पण्डित, विद्वान इसी प्राचीन मूर्ति को ईश्वर कहते हैं।
उसने अपने शरीर से स्वच्छ शरीर वाली एवं स्वरूपभूता शक्ति की रचना की। वही परमशक्ति, प्रकृति गुणमयी और बुद्धित्व की जननी कहलाई। उसे शक्ति, अंबिका, प्रकृति, संपूर्ण लोकों की जननी, त्रिदेवों की माता, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। उसकी आठ भुजाओं एवं मुख की शोभा विचित्र है। उसके मुख के सामने चंद्रमा की कांति भी क्षीण हो जाती है। विभिन्न प्रकार के आभूषण एवं गतियां देवी की शोभा बढ़ाती हैं। वे अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं।
सदाशिव को ही सब मनुष्य परम पुरुष, ईश्वर, शिव-शंभु और महेश्वर कहकर पुकारते हैं। उनके मस्तक पर गंगा, भाल में चंद्रमा और मुख में तीन नेत्र शोभा पाते हैं। उनके पांच मुख हैं तथा दस भुजाओं के स्वामी एवं त्रिशूलधारी हैं। वे अपने शरीर में भस्म लगाए हैं। उन्होंने शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया है। यह परम पावन स्थान काशी नाम से जाना जाता है। यह परम मोक्षदायक स्थान है। इस क्षेत्र में परमानंद रूप ‘शिव’ पार्वती सहित निवास करते हैं। शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी उस स्थान को नहीं छोड़ा। इसलिए शिवजी ने इसका नाम आनंदवन रखा है।
एक दिन आनंदवन में घूमते समय शिव-शिवा के मन में किसी दूसरे पुरुष की रचना करने की इच्छा हुई। तब उन्होंने सोचा कि इसका भार किसी दूसरे व्यक्ति को सौंपकर हम यहीं काशी में विराजमान रहेंगे।
ऐसा सोचकर उन्होंने अपने वामभाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया। जिससे एक सुंदर पुरुष वहां प्रकट हुआ, जो शांत और सत्व गुणों से युक्त एवं गंभीरता का अथाह सागर था। उसकी कांति इंद्रनील मणि के समान श्याम थी। उसका पूरा शरीर दिव्य शोभा से चमक रहा था तथा नेत्र कमल के समान थे। उसने हाथ जोड़कर भगवान शिव और शिवा को प्रणाम किया तथा प्रार्थना की कि मेरा नाम निश्चित कीजिए। यह सुनकर भगवान शिव हंसकर बोले कि सर्वत्र व्यापक होने से तुम्हारा नाम ‘विष्णु’ होगा। ***********