सचेतन:बुद्धचरितम्-15 श्रेणभिगमनम्: (राजमार्ग का अनुसरण)
यह कहानी एक ऐसे राजकुमार की है, जिसने अपनी विलासपूर्ण जीवनशैली, महल, परिवार और राज्य को छोड़कर सत्य की खोज में निकलने का निश्चय किया।
राजकुमार ने मंत्री और पुरोहित को पीछे छोड़ दिया और गंगा नदी को पार करके राजगृह नामक नगरी पहुँचा। राजगृह धन-धान्य और सुंदर भवनों से सम्पन्न एक भव्य नगरी थी। जब वह राजपथ पर चला, तो उसकी दिव्य छवि देखकर लोग चकित रह गए—
जो चल रहा था, वह रुक गया।
जो बैठा था, वह खड़ा हो गया।
जो तेजी से जा रहा था, वह धीरे चलने लगा।
और जो रुका हुआ था, वह उसके पीछे चल पड़ा।
कुछ लोगों ने हाथ जोड़कर उसका स्वागत किया, कुछ ने उसे सिर झुकाकर प्रणाम किया, और कुछ ने मधुर वचनों से अभिनंदन किया। वह इतना तेजस्वी और शांत दिखाई देता था कि कोई भी व्यक्ति बिना उसकी पूजा किए नहीं रह सका।
जब मगध के राजा बिम्बिसार ने अपने महल से बाहर भीड़ देखी तो उन्होंने कारण पूछा। एक सेवक ने बताया कि यह वही राजकुमार है, जो शाक्य वंश का है और जिसे ब्राह्मणों ने मोक्ष का अधिकारी बताया था। वह अब घर-बार छोड़कर परिव्राजक (भिक्षु) बन गया है।
राजा ने तुरंत आदेश दिया, “पता करो वह कहाँ जा रहा है।” वह सेवक राजकुमार के पीछे-पीछे चल पड़ा। राजकुमार भिक्षा मांग रहा था। जहाँ भी उसे थोड़ी-बहुत भिक्षा मिली, उसने उसे एकत्र किया और पास ही के एकांत स्थान पर जाकर उसे खा लिया। इसके बाद वह पाण्डव पर्वत पर चढ़ गया।
सेवक ने जाकर सारी जानकारी राजा बिम्बिसार को दी। यह सुनकर राजा अपने साथियों के साथ स्वयं पाण्डव पर्वत पर पहुँचे और उस राजकुमार से मिले। राजा ने प्रेमपूर्वक उसका हालचाल पूछा और राजकुमार ने भी सम्मानपूर्वक उत्तर दिया।
इसके बाद राजा बिम्बिसार ने कहा,
“हे कुमार! मैं तुम्हारे कुल से अत्यंत प्रेम करता हूँ। तुम महान सूर्यवंश में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी आयु अभी कम है और शरीर तेजस्वी है। तुम भिक्षा क्यों मांग रहे हो? यह शरीर तो राजपाट के योग्य है, प्रजापालन के लिए बना है, न कि काषाय वस्त्र (सन्यासी वस्त्र) पहनने के लिए।
अगर तुम अपने पिता के राज्य को नहीं अपनाना चाहते, तो मेरा आधा राज्य स्वीकार कर लो। मैं यह प्रस्ताव लोभवश नहीं, बल्कि स्नेह से कह रहा हूँ। जब तक युवावस्था है, तब तक सुख-सुविधाओं का भोग करो, और फिर वृद्धावस्था में धर्म का पालन करना।
जैसे—
युवा के लिए काम (वासनाओं का भोग),
मध्यम आयु के लिए धन का संचय,
और वृद्धावस्था में धर्म का आचरण उचित माना गया है।”
राजा ने आगे कहा,
“यदि तुम्हारा मन धर्म में ही लगा है, तो यज्ञ करो। यज्ञ करना तुम्हारे कुल का धर्म है। राजा लोग यज्ञ करके वही पुण्यफल प्राप्त करते हैं, जो ऋषि लोग घोर तपस्या से पाते हैं।”
यह प्रस्ताव राजा ने सच्चे स्नेह और सद्भावना से दिया, लेकिन राजकुमार का मन अब भिक्षा और मोक्ष के मार्ग में रम चुका था…।