सचेतन:बुद्धचरितम्-17 आराडदर्शन
गौतम बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की ओर यात्रा
गौतम बुद्ध, जो इक्ष्वाकु वंश के तेजस्वी राजकुमार थे, सत्य की खोज में निकल पड़े थे। वे पहले अराड मुनि के आश्रम पहुँचे। मुनि ने उनका प्रेमपूर्वक स्वागत किया और उन्हें आदर से आसन दिया। उन्होंने कहा, “शास्त्र का उपदेश देने से पहले मैं आमतौर पर शिष्य की परीक्षा लेता हूँ, लेकिन तुम्हारे भीतर जो ईमानदारी और जिज्ञासा है, उससे मैं प्रसन्न हूँ। इसलिए मैं तुम्हारी परीक्षा नहीं करूँगा।”
अराड मुनि एक अत्यंत ज्ञानी, शांति-प्रिय और तपस्वी पुरुष थे। उनका स्वभाव बहुत सरल और नम्र था। वे जंगल में रहते थे, और एकान्त में ध्यान करते थे। उनके पास वेद और उपनिषदों का गहरा ज्ञान था और वे आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझने की कोशिश में लगे रहते थे।
अराड मुनि का मानना था कि आत्मा शरीर से अलग एक शाश्वत तत्व है, और उसका उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है — यानी जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना। वे कहते थे कि ज्ञान, ध्यान और संयम के द्वारा आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है।
कुमार के प्रेम और विनम्र आग्रह पर अराड मुनि ने उन्हें उपदेश देना प्रारंभ किया। उन्होंने प्रकृति, विकृति, अहंकार, बुद्धि, पंच महाभूत, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, मोह, माया, संदेह, ज्ञान-अज्ञान, और विषाद जैसे विषयों की व्याख्या की। मुनि ने समझाया कि जो व्यक्ति “मैं ही द्रष्टा हूँ, श्रोता हूँ, ज्ञाता हूँ, कार्य और कारण हूँ” ऐसा मानता है, वही संसार में भटकता है। यही भ्रम पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। अगर कारण नहीं होगा, तो फल भी नहीं होगा।
अराड मुनि ने सिद्धार्थ को बताया कि जीवन में दुख का कारण अज्ञान (अविध्या) है। जब मनुष्य यह भूल जाता है कि वह शरीर नहीं, आत्मा है, तो वह मोह, लोभ और कामनाओं में फँस जाता है। इसलिए आत्मज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।
उन्होंने कहा कि एक बुद्धिमान व्यक्ति को चार बातों का ज्ञान होना चाहिए – प्रतिबुद्ध, अप्रयुद्ध, व्यक्त, और अव्यक्त। जो इनको जानता है, वही अक्षर पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। यही कारण है कि ब्रह्मवादी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
अराड मुनि ने पूरी श्रद्धा से ब्रह्म और मोक्ष की व्याख्या की और कहा, “मैंने तुम्हें मोक्ष का मार्ग दिखा दिया है। अगर तुम्हें रुचि हो, तो इसे स्वीकार करो।”
लेकिन सिद्धार्थ को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने मन में सोचा कि “यह धर्म अपूर्ण है”, इसलिए वे वहाँ से आगे बढ़ गए।परंतु… कुछ अधूरा था
अब वे और अधिक ज्ञान की तलाश में उद्रक रामपुत्र के आश्रम पहुँचे। वहाँ भी उन्होंने शिक्षाएँ सुनीं, लेकिन चूँकि वहाँ आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया था, जिसे सिद्धार्थ नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने वहाँ की शिक्षाएँ भी पूरी तरह स्वीकार नहीं कीं।
सच्चे कल्याण की खोज में वे आगे बढ़ते गए और राजऋषि गय के पास, नगरी नामक आश्रम पहुँचे। वहाँ उन्होंने नैरञ्जना नदी के तट पर निवास किया और पाँच साधुओं (भिक्षुओं) को देखा। उन्होंने कठोर तपस्या प्रारंभ की – छह वर्षों तक लगभग कुछ भी नहीं खाया, केवल तप में लीन रहे।
इस कठिन तपस्या से उनका शरीर अत्यंत दुर्बल और कृश हो गया। एक दिन उन्होंने विचार किया – “यह कठोर तपस्या केवल शरीर को कष्ट देती है, इससे न तो वैराग्य मिलेगा, न ज्ञान, न ही मुक्ति।”
अब उन्होंने निर्णय लिया कि उन्हें कुछ आहार लेना चाहिए। वे धीरे-धीरे नैरञ्जना नदी के तट से ऊपर चढ़े। उसी समय देवताओं के प्रेरणा से गोपराज की कन्या नन्दबाला वहाँ आई। वह उन्हें देखकर प्रसन्न हुई और श्रद्धा से उन्हें पायस (चावल का मीठा दूध) प्रदान किया।
लेकिन यह देखकर पाँच भिक्षुओं को लगा कि सिद्धार्थ ने अपना व्रत तोड़ दिया है, इसलिए उन्होंने उन्हें छोड़ दिया।
अब सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्ति का पक्का निश्चय कर लिया। वे पास ही एक अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे पहुँचे और वहाँ बैठ गए। उसी समय एक महान सर्प, जिसका नाम ‘काल’ था और जो हाथी के समान पराक्रमी था, उसने यह जानकर कि यह व्यक्ति बोधि प्राप्ति के लिए आया है, उनकी स्तुति की।
महासर्प की स्तुति से प्रसन्न होकर सिद्धार्थ ने संकल्प लिया –
“जब तक मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो जाता, तब तक इस स्थान को नहीं छोड़ूँगा।”
उन्होंने उसी महावृक्ष के नीचे, सर्प के फण की तरह गोल आकार में पिंडासन (पर्यङ्कासन) लगाया और ध्यान में बैठ गए – अडिग, अचल, शांत, और पूरी तरह समर्पित।यहीं से प्रारंभ हुआ उनका महान बोधि पथ, जो उन्हें गौतम बुद्ध बना देगा।