सचेतन:बुद्धचरितम्-19 सर्ग 14-15: आत्मज्ञान की ओर
चतुर्दश सर्ग की यह कहानी उस समय की है जब सिद्धार्थ (अब महामुनि) ने गहन ध्यान में बैठकर मार (माया और विकारों के देवता) की विशाल सेना को धैर्य और शांति के साथ पराजित किया था। अब उनके मन में संसार की अंतिम सच्चाई को जानने की गहरी इच्छा जाग उठी।
वे ध्यान की गहराइयों में उतर गए और ध्यान की सभी विधाओं में पूर्ण निपुणता प्राप्त की। प्रथम प्रहर में उन्होंने अपने अनगिनत पूर्वजन्मों को स्पष्ट रूप से देखा। उन्होंने अनुभव किया, “मैं अमुक स्थान पर अमुक रूप में था, फिर वहां से गिरकर यहाँ आया।” इस प्रकार उन्होंने अपने हजारों जन्मों की यात्रा को प्रत्यक्ष अनुभव की तरह स्मरण किया।
दूसरे प्रहर में उन्होंने एक और अद्भुत शक्ति प्राप्त की — दिव्य चक्षु (ईश्वरीय दृष्टि)। इस दिव्य दृष्टि से उन्होंने पूरे संसार को देखा। उन्होंने देखा कि आकाश में उड़ने वाले जीव, पानी में रहने वाले जीव और धरती पर चलने वाले जीव एक-दूसरे को दुख देते हैं, सताते हैं, और कोई भी पूरी तरह से सुखी नहीं है।
इस सबको देखकर उन्होंने सोचा — आखिर यह दुख क्यों है? इसका कारण क्या है? और इसका अंत कैसे हो सकता है? इस गहरे चिंतन से उन्हें संसार के दुख और मोक्ष का सही ज्ञान प्राप्त हुआ।
इसके बाद उन्हें स्मरण आया कि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह संसार में शांति और धर्म का उपदेश देंगे। तभी दो स्वर्गवासी देवता उनके पास आए और उन्हें प्रेरित किया कि अब समय आ गया है कि वे संसार को धर्म का मार्ग दिखाएं। वे देवता उन्हें प्रोत्साहित कर स्वर्ग लौट गए।
अब मुनि ने पूरे मन से जगत के कल्याण का निश्चय किया। तभी दसों दिशाओं के देवता आए और उन्होंने मुनि को भिक्षा पात्र (अंजलि) भेंट किए। मुनि ने उन्हें स्नेहपूर्वक स्वीकार कर एक में मिला दिया।
उसी समय रास्ते से गुजर रहे दो सेठों ने उन्हें देखा और पूजन कर सबसे पहली बार उन्हें भिक्षा दी। यह उनका प्रथम भिक्षा ग्रहण था।
मुनि ने सोचा कि वे अपना धर्म सबसे पहले अराड और उद्रक को बताएँगे, क्योंकि वे इस धर्म को समझ सकते हैं। लेकिन उन्हें ध्यान आया कि ये दोनों अब दिवंगत हो चुके हैं। तब उन्होंने उन पाँच भिक्षुओं को याद किया जो पहले उनके साथ तपस्या करते थे।
अब उन्होंने काशी के पास स्थित धन्य नगरी – भीमरथ की प्रिय मनोहर नगरी (वाराणसी) जाने का निश्चय किया। वह स्थान जहाँ वे उन्हें मिल सकते थे। जाने से पहले उन्होंने बोधिवृक्ष की ओर देखा, जहाँ उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने वृक्ष की ओर गहरी, शांत और शुभ दृष्टि डाली और फिर ज्ञान के उपदेश की यात्रा पर निकल पड़े।
यही वह क्षण था जब एक राजा नहीं, एक बुद्ध — एक पूर्ण ज्ञानी महापुरुष — दुनिया को सच्चे धर्म और शांति का मार्ग दिखाने के लिए तैयार हुआ।
सर्ग 15
जब महात्मा बुद्ध ज्ञान प्राप्त करने के बाद काशी की ओर जा रहे थे ताकि वहाँ लोगों को धर्म का उपदेश दे सकें। रास्ते में उन्हें एक अन्तःशुद्ध भिक्षु मिला। वह भिक्षु बुद्ध के तेजस्वी स्वरूप को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। उसने हाथ जोड़कर विनम्रता से पूछा:
“हे सौम्य! आप तो किसी तत्वज्ञानी की तरह तेज से चमक रहे हैं। निश्चित रूप से आपने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। कृपया बताइए, आपका नाम क्या है? आपने यह सिद्धि किस गुरू से पाई है?”
तब भगवान बुद्ध ने शांत स्वर में उत्तर दिया:
“मेरा कोई गुरू नहीं है। न कोई मेरे लिए सम्माननीय है, न ही निन्दनीय। मैंने स्वयं निर्वाण प्राप्त किया है। मैं धर्म का स्वामी हूँ। मैं काशी जा रहा हूँ—न तो सुख की खोज में, न यश पाने के लिए, बल्कि संसार के दुखियों की रक्षा के लिए। मैं धर्म की भेरी (घोषणा) बजाने जा रहा हूँ।”
भिक्षु ने बुद्ध के इन वचनों को सुनकर उन्हें मन ही मन प्रणाम किया और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया।
इधर महात्मा बुद्ध आगे बढ़ते हुए काशी पहुँचे, जहाँ उनके पाँच पुराने साथियों — महानाम, अश्वजित, वाष्प, कौण्डिन्य, और भद्रजित — तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने दूर से बुद्ध को आते देखा, तो आपस में कहने लगे:
“देखो, बुद्ध आ रहा है। यह तपस्या छोड़ चुका है, यह अब योग्य नहीं है। हम इसका कोई सत्कार नहीं करेंगे।”
लेकिन जब बुद्ध उनके पास पहुँचे, तो उनकी तेजस्विता और शांत चित्त को देखकर उन सभी के मन बदल गए। वे सभी बुद्ध के प्रति शिष्य भाव से झुक गए, हालांकि वे अब भी उन्हें सिर्फ नाम से पुकारते थे, सम्मान से नहीं।
तब भगवान बुद्ध ने उन्हें शिष्टाचार और धर्म के बारे में उपदेश दिया। उन्होंने उनसे पूछा: “क्या तुम सबको अब ज्ञान प्राप्त हो गया है?”
उन पाँचों मुनियों ने एक स्वर में कहा: “हाँ, हम सबको अवश्य ही ज्ञान प्राप्त हुआ है।”
फिर उन सबने बुद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनके धर्मचक्र प्रवर्तन की शुरुआत हुई।इस प्रकार, महात्मा बुद्ध ने काशी जाकर संसार में धर्म का प्रकाश फैलाना शुरू किया, और उनके पहले पाँच शिष्य बने वे ही भिक्षु, जिन्होंने पहले उन्हें अस्वीकार करने की सोची थी।