सचेतन- बुद्धचरितम् 23- 19-20 सर्ग – बुद्ध का चातुर्मास तक स्वर्ग में रुकना

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सचेतन- बुद्धचरितम् 23- 19-20 सर्ग – बुद्ध का चातुर्मास तक स्वर्ग में रुकना

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जब महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान और उपदेशों से कई शास्त्रज्ञों को जीत लिया, तब वे राजगृह से अपने जन्म स्थान—अपने पिता राजा शुद्धोदन के नगर कपिलवस्तु की ओर लौटे।

पुत्र के आने का समाचार सुनकर राजा शुद्धोदन बहुत प्रसन्न हुए। वे नगरवासियों के साथ बुद्ध से मिलने के लिए निकल पड़े। लेकिन जब उन्होंने बुद्ध को देखा, तो वे बहुत दुखी हो गए। बुद्ध अब साधु के रूप में थे—काषाय वस्त्र (गेरुए वस्त्र) पहने हुए, सिर मुंडा हुआ, शांत और गंभीर। यह दृश्य देखकर राजा को बड़ा दुःख हुआ, क्योंकि वे अपने बेटे को अब भी केवल एक पुत्र की दृष्टि से ही देख रहे थे, न कि एक बुद्ध के रूप में।

बुद्ध ने जब यह देखा कि उनके पिता उन्हें अभी भी सांसारिक दृष्टिकोण से देख रहे हैं, तो उन्होंने अपनी योग शक्ति का प्रयोग किया। वह आकाश में उड़ गए। वहाँ उन्होंने कभी बिजली की तरह चमक दिखाई, तो कभी बादलों की तरह वर्षा की। यह चमत्कार देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए।

बुद्ध ने आकाश में खड़े होकर ही उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने अपने पिता से कहा,

“हे राजन! पुत्र के मोह को त्यागिए और धर्म के आनंद को अपनाइए।”

उनके इस दिव्य उपदेश से लोगों का मन बदलने लगा। उसी समय बहुत से लोगों ने घर छोड़कर संन्यास लेने का निश्चय कर लिया। कई राजकुमार—कृमिल, नन्द, उपनन्द, अनिरुद्ध, आनन्द, देवदत्त, उपालि और स्वयं राजा शुद्धोदन—ने भी अपने भाइयों को राज्य सौंप दिया और बुद्ध के मार्ग (सौगत मत) को अपना लिया।

इन सभी नवदीक्षितों और नगरवासियों के साथ बुद्ध नगर में प्रवेश किए। नगर की स्त्रियाँ जब उन्हें देखती थीं, तो विलाप करती थीं, क्योंकि उन्हें अब भी बुद्ध में राजकुमार सिद्धार्थ की छवि दिखती थी। लेकिन बुद्ध तो अब अनासक्त हो चुके थे। वे शांत भाव से भिक्षा लेकर सीधे न्यग्रोध वन की ओर चले गए।

इस प्रकार यह सर्ग हमें दिखाता है कि कैसे बुद्ध ने अपने परिवार और नगरवासियों को सांसारिक मोह से मुक्त करके धर्म और ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर किया, और स्वयं सदैव निष्काम, निर्विकार बने रहे।

बीसवाँ सर्ग

महात्मा बुद्ध कुछ समय तक कपिलवस्तु में रहे। वहाँ से वे राजा प्रसेनजित के सुंदर नगर में पहुँचे, और फिर वहाँ से जेतवन नामक स्थान की ओर गए। जेतवन एक शांत और रमणीय जगह थी, जिसे वहाँ के राजा सुदत्त ने बड़े प्रेम और श्रद्धा से भगवान बुद्ध को समर्पित किया।

जब बुद्ध वहाँ पहुँचे, तो राजा सुदत्त ने एक कलश में जल भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और उन्हें जेतवन दान में दे दिया। इस बीच, राजा प्रसेनजित भी बुद्ध के दर्शन की इच्छा से वहाँ आया। उसने उनके चरणों में प्रणाम किया और बहुत भावुक होकर कहा,
“हे करुणा के सागर! मैं एक साधारण और अधम मनुष्य हूँ। कृपा करके मुझे आपका दर्शन हमेशा मिलता रहे। मैं राग (वासना) और राजधर्म (राजकीय जिम्मेदारियों) से बहुत दुखी हूँ।”

राजा की ऐसी बात सुनकर बुद्ध ने उसे शांति से उपदेश दिया। उन्होंने कहा,
“राजन्, सच्चे धर्म में मन लगाओ। अच्छे साधु-संतों का संग करो। वही जीवन का सही मार्ग है।”

बुद्ध की बातें सुनकर राजा प्रसेनजित के मन में गहरी शांति आई। उसने संसार के भोग-विलास और राज्य को नश्वर समझकर बुद्ध के बताये मार्ग को अपनाया और श्रावस्ती लौट गया।

इसके बाद, पंडितों और राजा के अनुरोध पर महात्मा बुद्ध ने एक अद्भुत चमत्कार दिखाया। वे सूर्य की तरह आकाश में प्रकट हुए और दिव्य शक्तियों से सभी को चकित कर दिया।

फिर बुद्ध ने एक विशेष कार्य के लिए स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। वे अपनी स्वर्गीय माता को धर्म की दीक्षा देने गए थे। वहाँ उन्होंने उन्हें धर्म का ज्ञान दिया, चार महीने (चातुर्मास) वहीं ठहरे और देवताओं से भिक्षा प्राप्त की। फिर, वे वापस पृथ्वी पर लौट आए।

चातुर्मास का मतलब होता है — चार महीने का विशेष समय, जब भगवान बुद्ध वर्षा ऋतु के दौरान एक जगह पर रुकते थे।

भारत में बारिश (वर्षा) के मौसम के समय, साधु-संत लंबी यात्राएँ नहीं करते थे, क्योंकि रास्ते फिसलन भरे हो जाते थे और जीव-जंतुओं को भी नुकसान पहुँच सकता था। इसलिए, वे एक ही स्थान पर रुककर ध्यान, शिक्षा और उपदेश का काम करते थे। इस ठहरने के चार महीनों को ही “चातुर्मास” कहा जाता है।

तो, जब बुद्ध स्वर्ग गए थे अपनी माँ को धर्म सिखाने,
वहाँ भी चार महीनों तक यानी चातुर्मास के समय तक स्वर्ग में ही ठहरे
इस दौरान वे माँ को धर्म का ज्ञान देते रहे और देवताओं से भिक्षा प्राप्त करते रहे।

“बुद्ध जी चार महीने (जिन्हें चातुर्मास कहते हैं) स्वर्ग में रुके थे। उस समय वे अपनी माँ को अच्छे कामों की बातें सिखाते थे और देवताओं से भोजन लेते थे।”

इस प्रकार इस सर्ग में बुद्ध की करुणा, दिव्यता और उपदेशों की शक्ति का सुंदर चित्रण मिलता है – कैसे वे राजाओं को भी सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं, और कैसे उनका प्रेम अपनी माता तक को मोक्ष की ओर ले जाता है।

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