सचेतन- 04: क्या हर मनुष्य मोक्ष चाहता है?
सृष्टि में करोड़ों जीव हैं — कीड़े, मछलियाँ, पक्षी, पशु… लेकिन इंसान? संख्या में बहुत कम। क्यों? क्योंकि सिर्फ मनुष्य ही सोच सकता है, श्रद्धा रख सकता है, अपने जीवन के उद्देश्य को पहचान सकता है। यानी सिर्फ इंसान को ही ज्ञान, कर्म और आनंद — इन तीनों का अनुभव करने की पूरी क्षमता है।
पेड़–पौधे ऊपर की ओर बढ़ते हैं, पशु खाने में लगे रहते हैं, पक्षी उड़ते हैं… पर मनुष्य? वह ऊपर उठ भी सकता है और भीतर झांक भी सकता है।
हमारी पाँच इंद्रियाँ, मन और बुद्धि — सब हमें यह क्षमता देती हैं कि हम केवल जीव न रहें, बल्कि जीवन को जानें।
लेकिन क्या हर मनुष्य मुमुक्षु होता है? यानी, क्या हर कोई मोक्ष चाहता है?
बहुत गहरा और ज़रूरी प्रश्न है: “क्या हर मनुष्य मुमुक्षु होता है?”
यानी — क्या हर इंसान वास्तव में मोक्ष चाहता है?
उत्तर है — नहीं।
सभी मनुष्य मोक्ष नहीं चाहते — क्यों?
हर मनुष्य के पास बुद्धि, विवेक और आत्मचिंतन की शक्ति होती है,
लेकिन सब लोग उसका उपयोग नहीं करते।
अधिकतर लोग क्या चाहते हैं?
- धन
- सुख-सुविधा
- मान–सम्मान
- भौतिक उपलब्धियाँ
ये सभी इच्छाएँ हमें बाहर की दुनिया में उलझाए रखती हैं।
मोक्ष की इच्छा (मुमुक्षुत्व) कोई सामान्य इच्छा नहीं है —
यह तब पैदा होती है जब व्यक्ति यह जान लेता है कि
संसार का कोई भी सुख स्थायी नहीं है।
मुमुक्षु कौन होता है?
मुमुक्षु वह होता है:
- जो जानता है कि जन्म–मरण का चक्र दुखमय है
- जो जानना चाहता है कि “मैं कौन हूँ?”
- जो बाहर नहीं, अंदर की यात्रा करना चाहता है
- जिसे संसार की चीज़ों से मोह घट रहा है
- जिसे शांति, सत्य और मुक्ति की तलाश है
बृहदारण्यक उपनिषद कहता है:
“आत्मा को केवल वही जान सकता है जो उसे जानना चाहता है”
और विवेकचूड़ामणि में शंकराचार्य कहते हैं:
“मुमुक्षुत्वं विनापि न सिध्यति ब्रह्मविद्या”
यानी — मुमुक्षुत्व के बिना ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं।
हर मनुष्य में संभावना है,
पर मुमुक्षुत्व एक जागी हुई आत्मा की पुकार है।
यह कोई बाहर से थोपी गई बात नहीं, बल्कि भीतर से उठती हुई तड़प है —
“अब और नहीं… मुझे मुक्त होना है।”और जब यह भावना प्रबल होती है — ईश्वर, गुरु और ज्ञान — स्वयं रास्ता दिखाने लगते हैं।