सचेतन- 05:साधना (Sādhanā): मन पर विजय की दिशा” “Sādhanā: Mastery of the Mind”
नमस्कार और स्वागत है आपका ‘सचेतन’ के इस आत्म-खोज के नए अध्याय में।
आज हम बात करेंगे उस गहराई की, उस पथ की — जिसे हम कहते हैं: “साधना”।
साधना केवल किसी धार्मिक कर्मकांड का नाम नहीं है, यह एक पवित्र अनुशासन (sacred discipline) है — जिसमें हमारा शरीर, श्वास और मन, तीनों एक ही ध्येय की ओर एकत्रित होते हैं: “अहं ब्रह्मास्मि” — मैं ब्रह्म हूँ, मैं दिव्य हूँ।
जब साधक इस सत्य पर एकाग्र होता है, तब वह अपने मन के विकर्षणों को पार करता है और ब्रह्म से एकाकार हो जाता है।
साधना के मुख्य अंग – आत्मा की ओर लौटने की तीन सीढ़ियाँ
मौन (Mauna / Silence)
“जहाँ शब्द समाप्त होते हैं, वहीं आत्मा बोलती है।”
- मौन केवल बोलना बंद करना नहीं है, यह है — विचारों की चंचलता से मुक्ति।
- जब बाहरी शोर रुकता है, तब भीतर का संगीत सुनाई देता है।
- मौन से चित्त स्थिर होता है और अंतरात्मा की आवाज़ स्पष्ट होती है।
ध्यान (Meditation / Dhyāna)
“ध्यान वह दर्पण है जिसमें आत्मा स्वयं को देखती है।”
- जब मन एकाग्र होकर एक बिंदु पर ठहरता है —
वह ‘ओम्’ की ध्वनि हो, श्वास का प्रवाह हो या अंतर्ज्योति —
तब साधक भीतर की शांति को अनुभव करता है। - ध्यान से हम बाह्य जगत से हटकर अपने सत्यस्वरूप की ओर बढ़ते हैं।
प्राण–नाड़ी संतुलन (Control of Vāyus & Nāḍīs)
“जहाँ प्राण स्थिर होते हैं, वहीं आत्मा प्रकट होती है।”
- हमारे शरीर में प्रवाहित वायु (life-force) और नाड़ियाँ (energy channels) — जैसे इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना —
ध्यानपूर्वक साधना से नियंत्रित होती हैं। - जब प्राण और मन एक लय में होते हैं, तब साधक चक्रों का जागरण और ऊर्जा का उत्थान अनुभव करता है।
यह अभ्यास क्यों आवश्यक है?
क्योंकि ये तीनों मिलकर साधक को भीतर की यात्रा पर ले जाते हैं —
जहाँ वह मन की सीमाओं को पार करके अपने दिव्य स्वरूप (ब्रह्म) से एक हो जाता है।
“साधना के ये तीन स्तंभ — मौन, ध्यान और प्राण-संयम — हमें उस मौलिक सत्य तक पहुंचाते हैं जहाँ केवल ‘मैं हूँ’ नहीं, ‘मैं ब्रह्म हूँ’ की अनुभूति होती है।”
साधना: मन पर विजय का मार्ग
हमारा मन सदैव चंचल, भटकता हुआ रहता है। पर जब हम साधना करते हैं — प्रतिदिन, श्रद्धा से — तो यह मन धीरे-धीरे शांत होता है, एकाग्र होता है।
बिखरा हुआ चित्त फिर एक ज्वलंत लौ में बदलता है, जो आत्मज्ञान को प्रकाशित करता है।
सच्ची साधना की भावना
साधना को प्राथमिकता देना अनिवार्य है।
जैसे एक माँ अपने बच्चे की देखभाल में संपूर्ण समर्पण देती है,
वैसे ही साधक को अपनी साधना के प्रति पूरी श्रद्धा और निष्ठा रखनी चाहिए।
भले ही पूरे दिन का समय न हो,
पर जो भी समय मिले, वह पूर्ण समर्पण से साधना को दिया जाए —
तो वही थोड़ी सी साधना भी जीवन बदल सकती है।
“साधना” वह सेतु है, जो आत्मा को ब्रह्म से जोड़ती है।
यह वह ज्वाला है, जो भीतर के अंधकार को जला देती है।
यह वह मौन है, जहाँ हम अपने सत्य रूप — “सत् चित् आनन्द” से मिलते हैं।ध्यान रहे:
यह यात्रा किसी और की नहीं, आपकी अपनी यात्रा है।
और उसका पहला कदम है — साधना।