सचेतन- 25:तैत्तिरीय उपनिषद्: परम आनन्द ही ब्रह्म है
“आनन्दो ब्रह्मेति” ✨
इसका अर्थ है — परम आनन्द ही ब्रह्म है।
तैत्तिरीयोपनिषद् का भाव कि साधक जब अन्न (शरीर), प्राण (जीवन-शक्ति), मन (विचार-भावना) और विज्ञान (विवेक-ज्ञान) की सीमाओं को पार कर लेता है, तब वह पहुँचता है आनन्दमय कोश में।
यहीं अनुभव होता है कि —
- सच्चा सुख बाहर की वस्तुओं या परिस्थितियों से नहीं,
- बल्कि भीतर की आत्मा से जुड़कर मिलता है।
यही अवस्था है — आनन्दो ब्रह्मेति।
क्यों कहा गया “आनन्द ही ब्रह्म है”?
- क्योंकि हर जीव सुख की खोज करता है –
चाहे गरीब हो या अमीर, बालक हो या वृद्ध, सबका लक्ष्य है आनन्द। - संसार के सुख क्षणिक हैं –
धन, पद, स्वाद, मनोरंजन से मिलने वाला सुख थोड़ी देर का है, और फिर दुख भी लाता है। - आनन्दमय कोश का सुख नित्य और शाश्वत है –
यह आत्मा से आता है, इसलिए इसमें कोई कमी या दुख नहीं है।
बहुत सुंदर और सारगर्भित रूप से आपने उपनिषद् का गूढ़ संदेश व्यक्त किया है 🌼 उपनिषद् हमें सिखाता है कि संसार के सारे सुख सीमित हैं।
कल्पना कीजिए —
स्वादिष्ट भोजन का आनंद (इन्द्रिय सुख) = 1 इकाई सुख।
उससे 100 गुना अधिक सुख विद्वान ब्राह्मण को ज्ञान के सुख में प्राप्त होता है।
उससे भी 100 गुना अधिक सुख देवताओं का होता है, जो विज्ञान और बुद्धि के प्रतीक हैं।
लेकिन इन सबसे ऊपर जो आनंद है —
वह है आत्मा का आनंद — ब्रह्मानंद।
यह आनंद न घटता है, न बढ़ता है।
यह न इंद्रियों से मिलता है, न किसी बाहरी वस्तु से।
यह तो हमारे भीतर, हमारी स्वयं की चेतना में विद्यमान है।
“आनन्दो ब्रह्मेति” = परम आनन्द ही ब्रह्म है। जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि मैं केवल शरीर, प्राण, मन या बुद्धि नहीं, बल्कि आत्मस्वरूप आनन्द हूँ — तभी उसे पूर्णता और मुक्ति मिलती है।
तैत्तिरीयोपनिषद् के “आनन्दमिमांसा” (आनन्द की सीढ़ी)
तैत्तिरीयोपनिषद् में “आनन्द की गणना” (Bhriguvallī, ब्रह्मानन्दवल्ली)
उपनिषद् कहता है – संसार में जो-जो सुख हैं, वे सब सीमित और क्रमशः बढ़ते हुए हैं। यदि हम एक सामान्य मानव के सर्वोच्च भौतिक सुख को 1 इकाई मान लें, तो तैत्तिरीयोपनिषद् की “आनन्दमिमांसा” (आनन्द की गणना या सीढ़ी) वास्तव में यह समझाने का तरीका है कि संसार में जो भी सुख है — चाहे वह मानव का हो या देवताओं का — सब सीमित हैं।
सच्चा, असीम और अक्षय आनंद केवल ब्रह्मानन्द है।