सचेतन- 29: तैत्तिरीय उपनिषद् तपो ब्रह्मेति

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सचेतन- 29: तैत्तिरीय उपनिषद् तपो ब्रह्मेति

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हमने बात किया की –
अन्नमय कोश – “अन्नं ब्रह्मेति”

शरीर अन्न से बना है। भोजन से पोषण होता है, उसी से हड्डी-मांस बनता है। शरीर बिना भोजन टिक नहीं सकता। इसलिए अन्न को ब्रह्म कहा गया।
प्राणमय कोश – “प्राणो ब्रह्मेति”, प्राण (श्वास और ऊर्जा) ही जीवन का आधार है। इसमें पाँच प्राण काम करते हैं: प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान। श्वास रुक जाए तो शरीर मृत हो जाता है। इसलिए प्राण को ब्रह्म कहा गया।
मनोमय कोश – “मनो ब्रह्मेति”, मन ही विचार और भावना का केंद्र है। सुख-दुःख, हर्ष-शोक सब मन से अनुभव होते हैं।मन ही जीवन को दिशा देता है। इसलिए मन को ब्रह्म कहा गया।
विज्ञानमय कोश – “विज्ञानं ब्रह्मेति”, बुद्धि और विवेक का केंद्र विज्ञानमय कोश है। यह हमें सही-गलत का भेद सिखाता है। केवल मन नहीं, बल्कि ज्ञान और निर्णय की क्षमता जीवन को ऊँचा उठाती है। इसलिए बुद्धि को भी ब्रह्म माना गया।
आनन्दमय कोश – “आनन्दो ब्रह्मेति”, आत्मा का सच्चा स्वरूप आनंद है।
यह आनंद बाहरी वस्तुओं से नहीं, भीतर से आता है। साधना, ध्यान और आत्मज्ञान में यही अनुभव मिलता है। इसलिए आनंद को ब्रह्म कहा गया।
मनुष्य की यात्रा ऐसे है:  भोजन (अन्न) → श्वास (प्राण) → विचार (मन) → विवेक (बुद्धि) → परमानंद (आत्मा)

बाहर से भीतर जाते-जाते हम शरीर से आत्मा तक पहुँचते हैं।और वहीं मिलता है — सच्चा आनंद, जो ब्रह्म है।

यह क्रम हमें दिखाता है कि साधना में यात्रा बाहर के स्थूल जगत से भीतर की सूक्ष्मतम चेतना की ओर होती है — और अंत में पता चलता है कि सबका आधार एक ही है: ब्रह्म“तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व — तपो ब्रह्मेति।”
(तैत्तिरीयोपनिषद् 3.2.1 — ब्रह्मानंदवल्ली)  “तप के द्वारा ब्रह्म को जानने का प्रयास करो, क्योंकि तप ही ब्रह्म है।”यहाँ “तपो ब्रह्म” का गूढ़ अर्थ है —
जब साधक तप करता है, तब वह तप के द्वारा ही ब्रह्म का अनुभव करने लगता है, क्योंकि वह उसी में एकाकार हो जाता है।

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