सचेतन- 06: आत्मबोध की यात्रा -“संसार: एक जागता हुआ स्वप्न है”
“क्या आपने कभी सपना देखा है…
और सपने में ही रोए हैं, डर गए हैं, खुश हो गए हैं?
उस समय सपना बिल्कुल सच लगता है।
लेकिन जागने के बाद हम कहते हैं—
‘अरे, यह तो बस सपना था।’
शंकराचार्य कहते हैं—
संसार भी कुछ ऐसा ही है।”
संसारः स्वप्नतुल्यो हि रागद्वेषादिसंकुलः।
स्वकाले सत्यवद्भाति प्रबोधे सत्यसद्भवेत्॥६॥
सरल अर्थ
“यह संसार—
जो राग, द्वेष, इच्छा और घृणा से भरा है—
स्वप्न के समान है। यह संसार भी सपना जैसा है।
जब तक हम “जागते” नहीं हैं,
तब तक यह हमें पूरा सच लगता है।
जब तक वह चलता है,
तब तक वह बिल्कुल सच लगता है।
लेकिन जब जागृति आती है—
जब आत्मज्ञान होता है—
तब यह असत्य जैसा प्रतीत होता है।”
संसार हमें इतना सच क्यों लगता है?
क्योंकि—
- हम इसमें रहते हैं
- काम करते हैं
- रिश्ते निभाते हैं
इसलिए हमें लगता है—
“यह सब बहुत सच है।”
हम कहते हैं—
- यह मुझे चाहिए
- यह मुझे नहीं चाहिए
- मुझे डर लग रहा है
इसी से संसार भारी लगता है।
इसलिए यह सब हमें बहुत वास्तविक लगता है।
राग— जिससे हमें लगाव है।
द्वेष— जिससे हमें नफरत है।
इच्छा— जो हमें दौड़ाती है।
डर— जो हमें बाँधता है।
शंकराचार्य कहते हैं—
यही राग-द्वेष संसार का ईंधन है।
और यही कारण है कि
संसार हमें ‘सत्य’ जैसा प्रतीत होता है।”
स्वप्न का उदाहरण
“अब स्वप्न को देखिए—
स्वप्न में
आप रोते हैं,
डरते हैं,
भागते हैं,
खुश होते हैं।
उस समय
स्वप्न झूठा नहीं लगता।
वह पूरा सच लगता है।
लेकिन जैसे ही आप जागते हैं—
स्वप्न समाप्त।
अब सोचिए—
क्या स्वप्न ‘नष्ट’ हुआ?
नहीं।
बस आप जाग गए।
और जागने से
स्वप्न की वास्तविकता समाप्त हो गई।”
संसार और स्वप्न में समानता
“शंकराचार्य यही बात संसार के बारे में कहते हैं—
✔️ संसार स्वप्न जैसा है
✔️ जागरण से उसका सत्यत्व समाप्त हो जाता है
यहाँ ‘जागरण’ का अर्थ
नींद से उठना नहीं है।
यहाँ जागरण का अर्थ है— खुद को समझ लेना।
आत्मबोध।
जब तक आत्मबोध नहीं होता—
संसार पूर्ण सत्य लगता है।
और जब आत्मबोध होता है—
तो वही संसार
मिथ्या दिखाई देता है।
मिथ्या का अर्थ—
न पूरी तरह असत्य,
न परम सत्य।”
असली समस्या कहाँ है?
“शंकराचार्य यहाँ एक बहुत सूक्ष्म बात बताते हैं—
संसार की समस्या
संसार में नहीं है।
समस्या है—
मेरी पहचान में।
मैं शरीर को ‘मैं’ मान लेता हूँ।
मैं मन को ‘मैं’ मान लेता हूँ।
मैं सीमाओं को ‘मैं’ मान लेता हूँ।
यही भ्रम कहलाता है—
और इसी भ्रम से
राग-द्वेष पैदा होते हैं,
दुख पैदा होता है,
संसार भारी लगने लगता है।”
जागृति आने पर क्या बदलता है?
“जब आत्मज्ञान होता है—
संसार अचानक गायब नहीं हो जाता।
घर, लोग, काम—
सब रहते हैं।
लेकिन एक बड़ा परिवर्तन होता है—
अब आप
संसार में रहते हैं,
संसार आप में नहीं रहता।
अब आप संसार में रहते हैं,
संसार आप पर हावी नहीं होता।
आप चीज़ों के साथ हो सकते हैं—
और उनके बिना भी।
यही मुक्ति है।
यही जागरण है।”
यही आज़ादी है
आप चीज़ों के साथ भी रह सकते हैं
और उनके बिना भी।
डर कम हो जाता है।
मन हल्का हो जाता है।
“आज का छोटा अभ्यास—
जब कोई स्थिति बहुत भारी लगे,
तो मन ही मन कहिए—
‘यह भी स्वप्न जैसा है।’
‘यह भी बीत जाएगा।’
और फिर ध्यान दीजिए—
जो इसे देख रहा है,
वह कौन है?
धीरे-धीरे
दृष्टा और दृश्य का भेद
स्पष्ट होने लगेगा।”
“दोस्तों,
संसार को झूठा कहने का मतलब
संसार से भागना नहीं है।
इसका अर्थ है—
संसार को वैसा ही देखना जैसा वह है।
स्वप्न में डरने के बजाय
जागने की तैयारी करना।
यही आत्मबोध है।
यही सच्ची स्वतंत्रता है।Stay Sachetan…
Stay Awake…
Stay Free.”
