सचेतन :39. श्री शिव पुराण- रचनाओं के प्रतिपादन के लिए प्रणव और पंचाक्षर …
Sachetan:Pranav and Panchakshara mantras for the rendering of creations
पांच कृतियों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता, ब्रह्मा, विष्णु द्वारा भगवान शिव की स्तुति तथा उनका अंतर्धान करके पाया है।
भगवान शिव कहते हैं की मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जलसे सबकी वृद्धि एवं जीवन- रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। विद्वान् पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये।
भगवान शिव श्री विष्णु जी और श्री ब्रह्मा जी से बोले मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूं ब्रह्मा और अच्युत ! ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ – यह पांच ही मेरे जगत संबंधी कार्य है जो नित्य सिद्ध है संस्कार संसार की रचना का जो आरम्भ है, उसको सर्ग या ‘सृष्टि’ कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टिका सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति’ है। उसका विनाश ही ‘संहार’ है। प्राणोंके उत्क्रमणको ‘तिरोभाव’ कहते हैं। इन छुटकारा मिल ही मेरा ‘अनुग्रह’ है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं। पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्षका हेतु है। वह सदा ही अचल भाव से स्थिर रहता है।
तिरोभाव यानी वैसा भाव या अवस्था जिसमें किसी भी राग के स्वरों को ऐसे क्रम में लगाना, जिससे किसी दूसरे राग की छाया दृष्टिगोचर होने लगे उसे तिरोभाव कहते हैं।
अनुग्रह की क्रियाशीलता होना यानी अनुकंपा, इनायत, करुणा, कृपा, दया, निवाजिश, फजल, रहम, रहमत, वत, शफक, शफकत, शफ़क़, शफ़क़त का होना।
शिव जी विष्णु जी और श्री ब्रह्मा जी से कहते हैं की इन पाँच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पाँच मुख हैं। चार दिशाओंमें चार मुख हैं और इनके में बीच में पाँचवाँ मुख है। पुत्रो ! तुम दोनों ने बहुत तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर की सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप ‘रुद्र’ और ‘महेश्वर’- दो अन्य उत्तम कृत्य – संहार और तिरोभाव वो मुझसे प्राप्त किये हैं । परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता । शिवजी कहते हैं की मैंने पूर्वकालमें अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महा मंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुखसे ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, , मेरे स्वरूपका बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र में स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकारका निरन्तर स्मरण करनेसे मेरा ही सदा स्मरण होता है।