सचेतन 200: शिवपुराण- वायवीय संहिता ॰॰ योग और ध्यान जीवन को आंतरिक मुक्ति दिलाता है
आप अपने जीवन में बदलाव चाहते हैं तो प्राचीन उपनिषद ग्रंथों से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
पाशुपत विज्ञान /पाशुपत ब्रह्म उपनिषद जिसको भगवान राम ने हनुमान को सुनाया था, और यह वर्तमान युग का उपनिषद कहा गया है जिसको बड़े बड़े दार्शनिक भी अपने दर्शन में उल्लेख करते हैं। यहाँ तक की सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा ने अपने पुत्र वैश्रवण को व्यावहारिक ज्ञान के रूप में, आत्मज्ञान के लिए, योग, ध्यान, अनुष्ठान, और आंतरिक विकास और सच्चे ज्ञान के रूप में पाशुपत विज्ञान की चर्चा करते हैं।
पाशुपत विज्ञान में बताया गया है की यदि आप मोक्ष का अनुभव करना चाहते हैं तो अपने प्राणवायु अपने स्वर अपने ध्यान अपनी मानसिक सोच से कर सकते हैं।
व्यक्ति को सभी बाहरी अनुष्ठान को त्याग कर सकता है और आंतरिक ध्यान करने से भी शांति मिलती है। यह उपनिषद धर्म-योग के बारे में बताता है जो स्वतंत्रता और मुक्ति की ओर ले जाता है, वह दूसरों के लिए अहिंसा का आभास देता है और यही पशुपति है जी भीतर का परमात्मा है।
योग और ध्यान जीवन में मुख्य होना चाहिए और यही लक्ष्य आंतरिक मुक्ति करवाता है जिससे आपको विचारों से, बंधनों से स्वतंत्रता मिलती है और एक अहसास होता है की ब्रह्म स्वयं आपके भीतर है।सर्वोच्च सत्य व्यक्ति के अपने शरीर के भीतर है।
योग और ध्यान को जीवन चर्या में लाने के लिए आपको स्वयं की रुचि में इस बात को लाना होगा और प्रयास करना होगा जो आत्मा ज्ञान का मार्ग है यहाँ से है। जीवन्मुक्त के लिए स्वयं का प्रयास शुरू होगा। एक बार जब वह इस अवस्था में पहुंच जाते हैं, तो आप हर किसी को अपने जैसा देखता है, उसे कोई आश्रम, कोई वर्ण (सामाजिक वर्ग), कोई अच्छाई, कोई बुराई, कोई निषेध, कोई आदेश नहीं दिखता। आप अपनी मर्जी से जीते है, आप मुक्त है, और आप दूसरों के बीच भेद और भेदभाव से मुक्त है। यह रूप से परे है, स्वयं से परे है, यह ब्रह्म के साथ एक है।
यह विचार भारतीय उपनिषद अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को प्रस्तुत करता है और यह संशोधनवादी विश्वदृष्टि रखता है। आप जब भी अपने जीवन में बदलाव की अपेक्षा रखते हैं तो इन प्राचीन उपनिषद ग्रंथों से प्राप्त हुई ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। भारत में उपजी हुई अद्वैत वेदांत कई विचारधाराओं में से एक है जिसके प्रवर्तक आदि शंकराचार्य थे। भारत में परब्रह्म के स्वरुप के बारे में कई विचारधाराएं हैं जिसमें द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, केवलाद्वैत, द्वैताद्वैत , शुद्धाद्वैत ऐसी कई विचारधाराएँ हैं।
द्वैत विचारधारा कहता है की हम सभी अपने आत्मा के स्वभाव, संस्कार (शख्शियत) के कारण अलग है।परमात्मा सर्व शक्तिमान रचता(Creator ) है। माया उसकी शक्ति (Energy) है।
अद्वैतवाद के सूत्रधार जगदगुरु आदि शंकराचार्य रहें हैं जिन्हें भगवान् शंकर का अवतार समझा गया है। इस मत के अनुसार केवल एक ही सत्ता है :ब्रह्म। आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। ब्रह्म ही आत्मा है अपने मूल रूप में लेकिन अज्ञान इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है।
विशिष्ठ अद्वैतवाद :इसके प्रवर्तक जगदगुरु रामानुजाचार्य तो एक ब्रह्म की सत्ता को मानते हैं लेकिन जैसे वृक्ष की शाखाएं ,पत्ते और फल और फूल उसी के अलग अलग अंग हैं एक ही वृक्ष में विविधता है वैसे ही जीव (आत्मा) और माया ,परमात्मा के विशेषण हैं। विशिष्ठ गुण हैं। इसीलिए इस दर्शन को नाम दिया गया विशिष्ठ अ-द्वैत वाद यानी
द्वैताद्वैतवाद (द्वैत -अद्वैतवाद ):इसके प्रतिपादक जगदगुरु निम्बकाचार्य अ-द्वैत और द्वैत दोनों को ही सही मानते हैं। समुन्द्र और उसकी बूँद अलग अलग भी हैं एक भी माने जा सकते हैं। उसी प्रकार आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अंश को अंशी से अलग भी कह सकते हैं, यूं भी कह सकते हैं शक्ति ,शक्तिमान से अलग नहीं होती है। शक्तिमान की ही होती है।
विशुद्ध अद्वैत वाद :इसके प्रतिपादक जगद -गुरु वल्लभाचार्य माया के अस्तित्व को मानते हैं शंकराचार्य की तरह नकारते नहीं हैं वहां तो माया इल्यूज़न है मिथ्या है। वहां तो आत्मा का भी अलग अस्तित्व नहीं माना गया है। आत्मा सो परमात्मा कह दिया गया है।
केवलाद्वैत यानी एकमेवाद्वितीयम् – यह श्रुति कहती है कि आत्मा एक ही है, अद्वितीय है । इस प्रकार आत्मा का एक ही होना और अद्वितीय होना वेदसिद्ध है ।केवलाद्वैत सिद्धान्त रूप अखिलवेदार्थ को हृदयङ्गम कर श्री_आद्य_शंकराचार्य के आदेश, उपदेश अथवा सन्देशों को श्रद्धावनत होकर श्रवण , मनन, निदिध्यासन करना चाहिये।
भारतीय दर्शन के ये छ :प्रमुख स्कूल हैं। सभी वेदान्त के ज्ञाता ऐसा मानते हैं। अलावा इसके भारतीय दर्शन के स्कूल हैं और भी लेकिन उतने विख्यात नहीं हैं।