सचेतन 218: शिवपुराण- वायवीय संहिता – कर्म मन:प्रेरित क्रिया होती है।
कर्म आपकी भावना पर आधारित होता है जिसका स्वतः फल मिलता है।
हमारी सर्वव्यापी चेतन ही हमारी प्रकृति है या कहें की यह महेश्वर की शक्ति यानी माया है जो आपको आवृत करके रखती है। और यही आवरण कला है। जब हम कला कहते हैं तो यह कला न की ज्ञान हैं, न शिल्प हैं, न ही विद्या हैं, बल्कि कला के द्वारा हमारी आत्म परमानन्द का अनुभव होता है।
प्रायः हमारे कर्म के कारण यह आवरण रूपी कला हमको अपने ही विराट और विश्व रूप से मिलता है या दूर ले जाता है, जिसपर हमारे आत्म के परमानन्द का अनुभव निर्भर करती हैं।
कला हमारे मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदार बनाती है। वह व्यक्ति को “स्व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” से जोड़ती है।
कला जीवन के ऊर्जा का महासागर है जिसमें हमारी अंतश्चेतना को जाग्रत करती है और ऊर्जावान जीवन को उभारती है।
कला का सीधा संबंध हमारे कर्म से है। कर्म का अर्थ होता है ‘क्रिया’। व्याकरण में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। “राम घर जाता है’ इस उदाहरण में “घर” गमन क्रिया के फल का आश्रय होने के नाते “जाना क्रिया’ का कर्म है। लेकिन अगर आप चेतना की दृष्टि से कर्म को सोचेंगे तो आपको लगेगा की जो कुछ कर्म मनुष्य करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है। यह फल शुभ, अशुभ अथवा दोनों से भिन्न होता है।
फल का यह रूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। दान शुभ कर्म है पर हिंसा अशुभ कर्म है। यहाँ कर्म शब्द क्रिया और फल दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह बात इस भावना पर आधारित है कि क्रिया सर्वदा फल के साथ संलग्न होती है। क्रिया से फल अवश्य उत्पन्न होता है।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं का इसमें समावेश नहीं है। आँख की पलकों का उठना, गिरना भी क्रिया है, परन्तु इससे फल नहीं उत्पन्न होता। दर्शन की सीमा में इस प्रकार की क्रिया का कोई महत्व इसलिए नहीं है कि वह क्रिया मन:प्रेरित नहीं होती।
सामान्यतः कर्म फल का नियम मन:प्रेरित क्रियाओं में ही लागू होता है। कभी कभी हम जान बूझकर किसी को दान देना अथवा किसी का वध करना ही सार्थक समझते है। परन्तु अनजाने में किसी का उपकार कर देना अथवा किसी को हानि पहुँचाना क्या कर्म की उक्तपरिधि में नहीं आता?
कानून में कहा जाता है कि नियम का अज्ञान मनुष्य को क्रिया के फल से नहीं बचा सकता। गीता भी कहती है कि कर्म के शुभ अशुभ फल को अवश्य भोगना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता। इस स्थिति में जाने-अनजाने में की गई क्रियाओं का शुभ-अशुभ फल होता ही है। अनजाने में की गई क्रियाओं के बारे में केवल इतना ही कहा जाता है कि अज्ञान कर्ता का दोष है और उस दोष के लिए कर्ता ही उत्तरदायी है। कर्ता को क्रिया में प्रवृत्त होने के पहले क्रिया से संबंधित सभी बातों का पता लगा लेना चाहिए।
स्वाभाविक क्रियाओं से अज्ञान में की गई कई क्रियाओं का भेद केवल इस बात में है कि स्वाभाविक क्रियाएँ बिना मन की सहायता से अपने आप होती हैं पर अज्ञानप्रेरित क्रियाएँ अपने आप नहीं होतीं- उनमें मन का हाथ तो होता है। न चाहते हुए भी आँख की पलकें गिरेंगी, पर न चाहते हुए अज्ञान में कोई क्रिया नहीं की जा सकती है। क्रिया का परिणाम क्रिया के उद्देश्य से भिन्न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि क्रिया की जाए। अत: कर्म की परिधि में वे क्रियाएँ और फल आते हैं जो स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न हैं।
“कर्म” एक ऐसी सक्रिय शक्ति के लिए प्रयोग की जाने वाली अभिव्यक्ति है जो यह दर्शाती है कि भविष्य में होने वाली घटनाओं को नियंत्रित करना आपके अपने हाथ में है। – 14वें दलाई लामा