सचेतन 251: शिवपुराण- वायवीय संहिता -आनंदपूर्ण शरीर- आनंदमय कोष या करण-शरीर है
आपको प्रसन्नता से निर्मित स्व को समझना होगा
हमलोग पंचकोष के बारे में चर्चा कर रहे हैं जिसमें अन्नमय कोश – अन्न तथा भोजन से निर्मित हमारा शरीर और मस्तिष्क है। प्राणमय कोश – प्राणों से बना। यह हमारी मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ और उत्तम अवस्था का परत है। मनोमय कोश – मन से बना। हम जो देखते, सुनते हैं अर्थात हमारी इन्द्रियों द्वारा जब कोई सन्देश हमारे मस्तिष्क में जाता है तो उसके अनुसार वहाँ सूचना एकत्रित हो जाती है, और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार हमारे विचार बनते हैं, जैसे विचार होंते हैं उसी तरह से हमारा मन स्पंदन करने लगता है। और विज्ञानमय कोश इसे आम तौर पर सूक्ष्म शरीर या आध्यात्मिक काया कहते हैं। यह वह आयाम है, जहां रूपांतरण एक वास्तविक रूप में संभव है। यह सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश है जहां सांसारिक सत्य का ज्ञान होने लगे और जो माया-भ्रम का जाल कटकर साक्षित्व में स्थित होने लगे या जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के स्तर से मुक्ति पाकर निर्विचार की दशा में होने लगे उसे ही सत्यज्ञान पर चलने वाला कहते हैं।
प्राणमय-कोश: क्रिया-शक्ति (करने की शक्ति), मनोमय-कोश: इच्छा-शक्ति (इच्छा की शक्ति) और विज्ञानमय-कोश: ज्ञान-शक्ति (जानने की शक्ति) से होता है।
विज्ञानमय, सूक्ष्म ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान या सत्य ज्ञानमय होने के लिए हमें एक गुरु का सहयोग चाहिए जो हमारे विज्ञानमय कोष को स्पर्श करे और हमारे आप अपने अन्नमय कोश, मनोमय कोश और प्राणमय कोश को बदल सके।
पांचवीं परत को आनंदमय कोश आनंद से बना आवरण कहा जाता है, जिसका अर्थ है “आनंदपूर्ण शरीर”। आनंदमय कोष / करण-शरीर। आनंदमय कोष चार बाहरी कोषों के समान अर्थ में एक आवरण नहीं है, बल्कि स्वयं आत्मा है जो प्रकाशरूप इस शरीर में है। आप जो भी करते हैं या सोचते हैं या जो कुछ हो रहा है उसका कारण है जिसका माध्यम यह शरीर है जहां कर्म का भंडार होने के साथ-साथ, यह करण चित्त, “कारण मन” या अतिचेतन मन भी है, जिसका आधार पराशक्ति (या सच्चिदानंद) है। यह आनंदमय कोष हमारे क्रियात्मक होने या विकासोन्मुख रहने से है। आपका जन्म या अवतार किसी माध्यम से विकसित होता है और अंत में आदि आत्मा, परमेश्वर में विलीन हो जाता है। फिर यह शिवमयकोश बन जाता है, अर्थात शिव का शरीर ।
आप अपने आपको प्रसन्नता से निर्मित स्व जब समझना शुरू करते हैं तो आपके अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर आंतरिक या सच्चे दिव्य स्व का विकास होता है। आनंदमय आत्मा इस प्रकार व्यक्तिगत दिव्य आत्मा है जो विकास के अतिमानसिक चरण का अनुसरण करते हुए और यहां तक कि उससे भी आगे निकलते हुए, आनंद के स्तर की प्राप्ति के साथ उभरेगी।
आनंदमय-कोश में प्रतिबिंबित आनंद का अनुभव सभी लोगों द्वारा 3 स्तरों में किया करते है पहला प्रिया-वृत्ति: वस्तु को देखना। समान वस्तु को देखने से उत्पन्न होने वाली प्रसन्नता या खुशी।मोद-वृत्ति: वस्तु को धारण करना। जो तुमने देखा, वह पकड़ में आ जाता है। अधिक खुश होना। और तीसरा प्रमोद-वृत्ति: वस्तु का आनंद लेना और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करना (उसके साथ एक हो जाना)। उदाहरण: वास्तव में चॉकलेट खा रहा हूँ। सबसे ज़्यादा खुश होना।
क्या इसका अर्थ है कि आपके भीतर खुशी का एक बुलबुला बैठा हुआ है? और यह आयाम शरीर के परे है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी प्रकृति या स्वभाव आनंदमय है, बल्कि वह हमें आनंदमय बनाता है।
जो भी अदैहिक है, उसकी हम न तो व्याख्या कर सकते हैं, न उसका वर्णन कर सकते हैं, इसलिए हम सिर्फ अपने अनुभव से उसके बारे में बात कर सकते हैं। हम सिर्फ यह जानते हैं कि जब हम उसे स्पर्श करते हैं, तो हम आनंदित हो जाते हैं। इसलिए अपने अनुभव से हम कहते हैं कि यह आनंदपूर्ण काया या शरीर है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी प्रकृति या स्वभाव आनंदमय है, बल्कि वह हमें आनंदमय बनाता है।