सचेतन 261: शिवपुराण- वायवीय संहिता – योगक्षेमं वहाम्यहम्
आपका हरेक कर्म इस सृष्टि में शून्यता से ही प्रारंभ होता है।
‘शिव’ का अर्थ है शून्य, ‘शिव’ यानी ‘जो नहीं है’। एक बार अपने शून्य होने की सहनशीलता को सक्षम करके देखिए आपको लगेगा की आपका हरेक कर्म इस सृष्टि में शून्यता से ही प्रारंभ होता है। अगर जीवन में यह जान पाये तो आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे।
हम अगर यह महसूस कर पाएँ या जान पाएँ की एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है तो अनन्यभाव से शिव अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान संभव हो जाता है। हमने मंत्र योग, स्पर्श योग और भाव योग में शरीर के पंच आवरण – अन्नमय कोष, प्राणमय-कोश, मनोमय-कोश, विज्ञानमय-कोश और आनंदमय कोषन को भेदने का प्रयास करते हैं जिसका लक्ष्य है एकमात्र आत्मा और सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य को अनन्यभाव से शिव के साथ साक्षात्कार करना।
श्रीकृष्ण कि गीता के उपदेश में ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ कहा गया है जिसका अर्थ है अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करा देना ‘योग’ है और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करना ‘क्षेम’ है। भगवान् कहते हैं कि मेरे में नित्य-निरन्तर लगे हुए भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
‘वहाम्यहम्’ का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चे के लिये माँ किसी वस्तु की आवश्यकता समझती है, तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साह के साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरे में निरन्तर लगे हुए भक्तों के लिये शिव के द्वारा आवश्यकता को समझना और वह वस्तु शिव स्वयं ढोकर लाकर देता है अर्थात् भक्तों के सब काम वो स्वयं करते हैं।
योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति का संचार करना। योग में भौतिक का स्वयं के भीतर आध्यात्मिक के साथ मिलन करना है। हमने एक दिन चर्चा किया था की बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर स्थित पंचशूल पांच योग पंचक को जानने की प्रेरणा देता है।पंचक का अर्थ होता है जब हम कोई मांगलिक कार्य या अच्छा करना चाहते हैं लेकिन वह करना मुश्किल हो जाता है।
व्यावहारिक जगत के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता पाना और योग में भौतिक का स्वयं के भीतर आध्यात्मिक के साथ मिलन का भेद समझना एक रहस्य जैसा और मुश्किल है। और योग के इस रहस्य से संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में यदि आप एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रखते हैं तो आपकी सफलता निश्चित होती है। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए? उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और वो शिव से दूर और दूर होते जाते हैं। इस स्थिति में उनका संकल्प दृढ़ कैसे रह सकता है ऐसे आकस्मिक और क्षणिक निश्चय वाले लोगों के लिए जीवन में किसी भी कार्य क्षेत्र में उन्नति करना सम्भव नहीं है।
हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि विचारों से ही निर्माण कार्य होता है। संकल्पशक्ति से ही कर्म बल प्राप्त करते हैं। जब शक्तिदायक स्रोत ही श्वासरुद्ध हो जाता है या बिखर जाता है तब बाह्य कार्यों में कार्यान्वयन की शक्ति क्षीण और प्रभावहीन हो जाती है। सफलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त रहे।
जब हम सचेतन में भाग लेते हैं तो यह उस शिव के भाव को आपके ध्यान में स्पंदन करते हैं। ध्यान शरीर और मन की सीमाओं से परे जाने और चेतना के उच्च स्तर का अनुभव करने का अवसर देता है।
अनुभव कहें या भाव यह शब्द संवेदना की तरह है।” सचेतन कहीं ना कहीं आपकी चेतना का प्रतिध्वनि है। सचेतन की प्रक्रियाओं और ध्यान के माध्यम से, आप एक अत्यधिक ऊर्जावान स्थिति में अपने आप को पा सकते हैं। आपके व्यक्तित्व और पांच इंद्रियों की सीमाओं को पार किया जा सकता है, जिससे शेष अस्तित्व के साथ एकता और प्रतिध्वनि का अनुभव पैदा होता है। यह असीम प्रेम और आनंद का एक शानदार अनुभव प्रदान करता है।