सचेतन 2.27: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – जीवन में किसी घटना के होने से बचने के लिए प्रतीक्षा करना चाहिए।
वीर वानर हनुमान् विदेहनन्दिनी के दर्शन के लिये उत्सुक हो उस समय सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।
देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय जैसी लंकापुरी को देखकर हनुमान जी भी विचार करने लगे और सोचते हैं की – अच्छा तो किस उपाय का अवलम्बन करने से स्वामी का कार्य नहीं बिगड़ेगा। साथ मुझे में कोई घबराहट या अविवेक लक्षण नहीं होना चाहिए नहीं तो मेरा यह समुद्र का लाँघना भी व्यर्थ हो जाएगा, भगवान् श्रीराम का यह कार्य सफल न हो सकेगा।
हनुमान जी राक्षस का रूप धारण करके भी राक्षसों से अज्ञात नहीं रह सकते। हनुमान जी विचार करते हैं की यदि यहाँ मैं अपने इस रूप से छिपकर भी रहँगा तो मारा जाऊँगा और मेरे स्वामी के कार्य में भी हानि पहुँचेगी। अतः मैं श्रीरघुनाथजी का कार्य सिद्ध करने के लिये रात में अपने इसी रूप से छोटा-सा शरीर धारण करके लंका में प्रवेश करूँगा। यद्यपि रावण की इस पुरी में जाना बहुत ही कठिन है तथापि रात को इसके भीतर प्रवेश करके सभी घरों में घुसकर मैं जानकीजी की खोज करूँगा। ऐसा निश्चय करके वीर वानर हनुमान् विदेहनन्दिनी के दर्शन के लिये उत्सुक हो उस समय सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे।
जीवन में किसी घटना के होने से बचने के लिए के प्रतीक्षा करना चाहिए।
सूर्यास्त हो जाने पर रात के समय उन पवनकुमार ने अपने शरीर को छोटा बना लिया। वे बिल्ली के बराबर होकर अत्यन्त अद्भुत दिखायी देने लगे। प्रदोषकाल में पराक्रमी हनुमान् तुरंत ही उछलकर उस रमणीय पुरी में घुस गये। वह नगरी पृथक्-पृथक् बने हुए चौड़े और विशाल राजमार्गों से सुशोभित थी। उसमें प्रासादों की लंबी पंक्तियाँ दूरतक फैली हुई थीं। सुनहरे रंग के खम्भों और सोने की जालियों से विभूषित वह नगरी गन्धर्वनगर के समान रमणीय प्रतीत होती थी। हनुमान जी ने उस विशाल पुरी को सतमहले, अठमहले मकानों और सुवर्णजटित स्फटिक मणि की फर्शों से सुशोभित देखा। उनमें वैदूर्य (नीलम) भी जड़े गये थे, जिससे उनकी विचित्र शोभा होती थी। मोतियों की जालियाँ भी उन महलों की शोभा बढ़ाती थीं। उन सबके कारण राक्षसों के वे भवन बड़ी सुन्दर शोभा से सम्पन्न हो रहे थे।
सोने के बने हुए विचित्र फाटक सब ओर से सजी हुई राक्षसों की उस लंका को और भी उद्दीप्त कर रहे थे। ऐसी अचिन्त्य और अद्भुत आकारवाली लंका को देखकर महाकपि हनुमान् विषाद में पड़ गये; परंतु जानकी जी के दर्शन के लिये उनके मन में बड़ी उत्कण्ठा थी, इसलिये उनका हर्ष और उत्साह भी कम नहीं हुआ।
जीवन में विषाद होना यानी अपूर्ण इच्छाओं और निराशा प्रभाव से मानसिक दुविधा होना लाज़मी है। लेकिन इसके प्रभाव से व्यक्ति को हताशा और कुण्ठा में नहीं जाना चाहिए। विषाद से बचाने के लिए अवलम्बन, यानी कोई आधार या सहारा चाहिए होता है वह सहारा है आपका लक्ष्य और राम नाम का अवलंबन। अगर जीवन में अवलम्बन नहीं हो तो विषाद भयावह मानसिक विकार में बदल जाता है और व्यक्ति नित्य दुःख, घबराहट, चिंता और आशंकाओ से घिरा रहता है।
हनुमान जी ने देखा की परस्पर सटे हुए श्वेतवर्ण के सतमंजिले महलों की पंक्तियाँ लंकापुरी की शोभा बढ़ा रही थीं। बहुमूल्य जाम्बूनद नामक सुवर्ण की जालियों और वन्दनवारों से वहाँ के घरों को सजाया गया था। भयंकर बलशाली निशाचर उस पुरी की अच्छी तरह रक्षा करते थे। रावण के बाहुबल से भी वह सुरक्षित थी। उसके यश की ख्याति सुदूर तक फैली हुई थी। ऐसी लंकापुरी में हनुमान जी ने प्रवेश किया॥
उस समय तारागणों के साथ उनके बीच में विराजमान अनेक सहस्र किरणोंवाले चन्द्रदेव भी हनुमान जी की सहायता-सी करते हुए समस्त लोकों पर अपनी चाँदनी का चंदोवा-सा तानकर उदित हो गये। वानरों के प्रमुख वीर श्रीहनुमान जी ने शङ्ख की-सी कान्ति तथा दूध और मृणाल के-से वर्णवाले चन्द्रमा को आकाश में इस प्रकार उदित एवं प्रकाशित होते देखा, मानो किसी सरोवर में कोई हंस तैर रहा हो।
जब आप वर्तमान की शोभा को जीते हैं तो विषाद से ज़्यादा आपके अंदर का मनोबल प्रकाशित होता है जिसे सभी प्रोत्साहित करते हैं।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ।