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नितांत शुद्ध रखने की परंपरा से अंतःपुर की विशिष्टता होती है हनुमान्जीका रावणके अन्तःपुरमें घर-घरमें सीताको ढूँढ़ना और उन्हें न देखकर दुःखी होना भूतल धार मंदराचल में, संध्या के समय महासागर में और जल के भीतर कमलों में जो लक्ष्मी जिस प्रकार सुशोभित होती हैं, वे ही उसी प्रकार मनोहर चंद्रमा में शोभा पा रही थीं। जैसे चाँदी के पिंजरे में हम, मन्द्राचल की कन्दरा में सिंह तथा मदमत्त हाथीकी पीठ पर वीर पुरुष शोभा पाते हैं, उसी प्रकार आकाश में चंद्रदेव सुशोभित हो रहे थे। जैसे तीखे सींगवाला बैल खड़ा हो, जैसे ऊपरको उठे शिखरवाला महान् पर्वत श्वेत (हिमालय ) शोभा पाता हो और जैसे सुवर्ण जटित दाँतों से युक्त गजराज सुशोभित होता हो, उसी प्रकार हरिणके श्रृंगरूपी चिह्न से युक्त परिपूर्ण चन्द्रमा छबि पा हे थे। जिनका शीतल जल और हिमरूपी पंक से संसर्ग का दोष नष्ट हो गया है, अर्थात् जो इनके संसर्ग से बहुत दूर है। सूर्य-किरणों को ग्रहण करने के कारण जिन्होंने अपने अन्धकार रूपी पंकको भी नष्ट कर दिया है तथा प्रकाश रूप लक्ष्मीका आश्रयस्थान होनेके कारण जिनकी कालिमा भी निर्मल प्रतीत होती है, वे भगवान् शशलांछन बन्द्रदेव आकाशमें प्रकाशित हो रहे थे। जैसे गुफाके बाहर शिलातलपर बैठा हुआ मृगराज (सिंह) शोभा पाता है, जैसे विशाल वनमें पहुँचकर गजराज सुशोभित होता है तथा जैसे राज्य पाकर राजा अधिक शोभासे सम्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल प्रकाशसे युक्त होकर चन्द्रदेव सुशोभित हो रहे थे। प्रकाशयुक्त चन्द्रमाके उदयसे जिसका अन्धकाररूपी दोष दूर हो गया है, जिसमें राक्षसों के जीव-हिंसा और मांस-भक्षण रूपी दोष बढ़ गये हैं तथा रमणियों के रमण-विषयक चित्तदोष (प्रणय-कलह) निवृत्त हो गये हैं, वह पूजनीय प्रदोषकाल स्वर्ग-सदृश सुखका प्रकाश करने लगा। वीणाके श्रवण सुखद शब्द झंकृत हो रहे थे, सदाचारिणी स्त्रियाँ पतियोंके साथ सो रही थीं तथा अत्यन्त अद्भुत और भयंकर शील-स्वभाववाले निशाचर निशीथ कालमें विहार कर रहे थे। बुद्धिमान् वानर हनुमान्ने वहाँ बहुत-से घर देखे। किन्हींमें ऐश्वर्य-मदसे मत्त निशाचर निवास करते थे, किन्हीं में मदिरापान से मतवाले राक्षस भरे हुए थे। कितने ही घर रथ, घोड़े आदि वाहनों और भद्रासनोंसे सम्पन्न थे तथा कितने ही वीर-लक्ष्मीसे व्याप्त दिखायी देते थे। वे सभी गृह एक-दूसरेसे मिले हुए थे। राक्षसलोग आपस में एक-दूसरे पर अधिक आक्षेप करते थे। अपनी मोटी-मोटी भुजाओं को भी हिलाते और चलाते थे। मतवालों की-सी बहकी-बहकी बातें करते थे और मदिरा से उन्मत्त होकर परस्पर कटु वचन बोलते थे। इतना ही नहीं, वे मतवाले राक्षस अपनी छाती भी पीटते थे। अपने हाथ आदि अंगों को चित्रों का निर्माण करते थे और अपने सुदृढ़ धनुषों को कान तक खींचा करते थे। हनुमान्जी ने यह भी देखा कि नायिकाएँ अपने अंगों में चन्दन आदि का अनुलेपन करती हैं। दूसरी वहीं सोती हैं। तीसरी सुन्दर रूप और मनोहर मुखवाली ललनाएँ हँसती हैं तथा अन्य वनिताएँ प्रणय-कलह से कुपित हो लंबी साँसें खींच रही हैं। चिग्धाङ्गते हुए महान् गजराजों, अत्यन्त सम्मानित श्रेष्ठ सभासदों तथा लंबी साँसे छोड़नेवाले वीरोंके कारण वह लंकापुरी फुफकारते हुए सर्पोंसे युक्त सरोवरों के समान शोभा पा रही थी। हनुमान्जी ने उस पुरीमें बहुत-से उत्कृष्ट बुद्धिवाले, सुन्दर बोलनेवाले, सम्यक् श्रद्धा रखनेवाले, अनेक प्रकारके रूप-रंगवाले और मनोहर नाम धारण करनेवाले विश्व-विख्यात राक्षस देखे। वे सुन्दर रूपवाले, नाना प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न, अपने गुणोंके अनुरूप व्यवहार करनेवाले और तेजस्वी थे। उन्हें देखकर हनुमान्जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बहुतेरे राक्षसों को सुन्दर रूप से सम्पन्न देखा और कोई-कोई उन्हें बड़े कुरूप दिखायी दिये। तदनन्तर वहाँ उन्होंने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करनेके योग्य सुन्दरी राक्षस-रमणियों को देखा, जिनका भाव अत्यन्त विशुद्ध था। वे बड़ी प्रभावशालिनी थीं। उनका मन प्रियतम में तथा मधुपानमें आसक्त था। वे तारिकाओंकी भाँति कान्तिमती और सुन्दर स्वभाववाली थीं। हनुमान्जी की दृष्टि में कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी आयीं जो अपने रूप-सौन्दर्य से प्रकाशित हो रही थीं। वे बड़ी लजीली थीं और आधी रात के समय अपने प्रियतम के आलिंगन पाश में इस प्रकार बँधी हुई थीं जैसे पक्षिणी पक्षी के द्वारा आलिंगित होती है। वे सब के सब आनन्द में मग्न थीं। दूसरी बहुत-सी स्त्रियाँ महलों की छतों पर बैठी थीं। वे पतिकी सेवा में तत्पर रहनेवाली, धर्मपरायणा, विवाहिता और कामभावनासे भावित थीं। हनुमान्जीने उन सबको अपने प्रियतम के अंकमें सुखपूर्वक बैठी देखा। कितनी ही कामिनियाँ सुवर्ण-रेखाके समान कान्तिमती दिखायी देती थीं। उन्होंने अपनी ओढ़नी उतार दी थी। कितनी ही उत्तम वनिताएँ तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाली थीं तथा कितनी ही पतिवियोगिनी बालाएँ चन्द्रमा के समान श्वेत वर्ण की दिखायी देती थीं। उनकी अंगकान्ति बड़ी ही सुन्दर थी।