सचेतन 2.37: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – तपस् में जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति होती है
हनुमान् जी के द्वारा पुनः पुष्पक विमान का दर्शन
रावण के भवन के मध्यभाग में खड़े हुए बुद्धिमान् पवनकुमार कपिवर हनुमान् जी ने मणि तथा रत्नों से जटित एवं तपे हुए सुवर्णमय गवाक्षों की रचना से युक्त उस विशाल विमान को पुनः देखा।
उसकी रचना को सौन्दर्य आदि की दृष्टि से मापा नहीं जा सकता था। उसका निर्माण अनुपम रीति से किया गया था। स्वयं विश्वकर्मा ने ही उसे बनाया था और बहुत उत्तम कहकर उसकी प्रशंसा की थी। जब वह आकाश में उठकर वायुमार्ग में स्थित होता था, तब सौर मार्ग के चिह्न-सा सुशोभित होता था।
उसमें कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो अत्यन्त प्रयत्न से न बनायी गयी हो तथा वहाँ कोई भी ऐसा स्थान या विमान का अंग नहीं था, जो बहुमूल्य रत्नों से जटित न हो। उसमें जो विशेषताएँ थीं, वे देवताओं के विमानों में भी नहीं थीं। उसमें कोई ऐसी चीज नहीं थी, जो बड़ी भारी विशेषता से युक्त न हो।
कहा जाता है कि इस विमान का निर्माण विश्वकर्मा भगवान ने किया था और पुष्पक विमान कुबेर देव को भेंट की गई थी, जिसे रावण ने तप से विमान पर अधिकार प्राप्त किया था।
रावण ने जो निराहार रहकर तप किया था और भगवान् के चिन्तन में चित्त को एकाग्र किया था, इससे मिले हुए पराक्रम के द्वारा उसने उस विमान पर अधिकार प्राप्त किया था। मनमें जहाँ भी जाने का संकल्प उठता, वहीं वह विमान पहुँच जाता था। अनेक प्रकार की विशिष्ट निर्माण-कलाओं द्वारा उस विमान की रचना हुई थी तथा जहाँ-तहाँ से प्राप्त की गयी दिव्य विमान-निर्माणोचित विशेषताओं से उसका निर्माण हुआ था।
तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है।किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा।
वास्तव में तपस् की भावना का विकास चार पुरुषार्थो और चार आश्रमों के सिद्धांत के विकास का परिणाम था। तप और संन्यास के दार्शनिक पक्ष का सर्वात्तम स्वरूप दिखाई देता है और उसके शरीरिक, वाचिक और मानसिक तथा सात्विक, राजसी और तामसी प्रकार बताए गए हैं। शारीरिक तप देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है, वाचिक तप अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है और मानसिक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और भावसंशुद्धि से सिद्ध होता है। इसके साथ ही उत्तम तम तो है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला राजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं। स्पष्ट है, भारतीय तपस् में जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है और निष्काम कर्म उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
वह स्वामी के मन का अनुसरण करते हुए बड़ी शीघ्रता से चलने वाला, दूसरों के लिये दुर्लभ और वायु के समान वेगपूर्वक आगे बढ़ने वाला था तथा श्रेष्ठ आनन्द (महान् सुख)के भागी, बढ़े-चढ़े तपवाले, पुण्यकारी महात्माओं का ही वह आश्रय था।
वह विमान गतिविशेष का आश्रय ले व्योम रूप देश-विशेष में स्थित था। आश्चर्यजनक विचित्र वस्तुओं का समुदाय उसमें एकत्र किया गया था। बहुत-सी शालाओं के कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान निर्मल और मन को आनन्द प्रदान करने वाला था। विचित्र छोटे-छोटे शिखरों से युक्त किसी पर्वत के प्रधान शिखर की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार अद्भुत शिखर वाले उस पुष्पक विमान की भी शोभा हो रही थी।
जिनके मुखमण्डल कुण्डलों से सुशोभित और नेत्र घूमते या घूरते रहनेवाले, निमेषरहित तथा बड़े-बड़े थे, वे अपरिमित भोजन करने वाले, महान् वेगशाली, आकाश में विचरने वाले तथा रात में भी दिन के समान ही चलने वाले सहस्रों भूतगण जिसका भार वहन करते थे, जो वसन्त-कालिक पुष्प-पुञ्ज के समान रमणीय दिखायी देता था और वसन्त मास से भी अधिक सुहावना दृष्टिगोचर होता था, उस उत्तम पुष्पक विमान को वानरशिरोमणि हनुमान जी ने वहाँ देखा ।
हनुमान जी का रावण के श्रेष्ठ भवन पुष्पक विमान तथा रावण के रहने की सुन्दर हवेली को देखकर उसके भीतर सोयी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियों का अवलोकन करना
लंकावर्ती सर्वश्रेष्ठ महान् गृह के मध्यभाग में पवनपुत्र हनुमान जी ने देखा—एक उत्तम भवन शोभा पा रहा है। वह बहुत ही निर्मल एवं विस्तृत था। उसकी लंबाई एक योजन की और चौड़ाई आधे योजन की थी। राक्षसराज रावण का वह विशाल भवन बहुत-सी अट्टालिकाओं से व्याप्त था।
विशाललोचना विदेहनन्दिनी सीता की खोज करते हुए शत्रुसूदन हनुमान जी उस भवन में सब ओर चक्कर लगाते फिरे।
बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान् राक्षसों के उस उत्तम आवास का अवलोकन करते हुए एक ऐसे सुन्दर गृह में जा पहुँचे, जो राक्षसराज रावणका निजी निवासस्थान था।