सचेतन 2.47: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान्जी वानप्रस्थी बनाने का विचार किया
हनुमान जी ने सोचा— यदि मैं सीताजी को देखे बिना ही यहाँ से वानरराज की पुरी किष्किन्धा को लौट जाऊँगा तो मेरा पुरुषार्थ ही क्या रह जायगा? फिर तो मेरा यह समुद्रलंघन, लंका में प्रवेश और राक्षसों को देखना सब व्यर्थ हो जायगा।
किष्किन्धा में पहुँचने पर मुझसे मिलकर सुग्रीव, दूसरे-दूसरे वानर तथा वे दोनों दशरथ राजकुमार भी क्या कहेंगे?
यदि वहाँ जाकर मैं श्रीरामचन्द्रजी से यह कठोर बात कह दूँ कि मुझे सीता का दर्शन नहीं हुआ तो वे प्राणों का परित्याग कर देंगे। सीताजी के विषय में ऐसे रूखे, कठोर, तीखे और इन्द्रियों को संताप देने वाले दुर्वचन को सुनकर वे कदापि जीवित नहीं रहेंगे। उन्हें संकट में पड़कर प्राणों के परित्याग का संकल्प करते देख उनके प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् लक्ष्मण भी जीवित नहीं रहेंगे। अपने इन दो भाइयों के विनाश का समाचार सुनकर भरत भी प्राण त्याग देंगे और भरत की मृत्यु देखकर शत्रुघ्न भी जीवित नहीं रह सकेंगे।
इस प्रकार चारों पुत्रों की मृत्यु हुई देख कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी ये तीनों माताएँ भी निस्संदेह प्राण दे देंगी। कृतज्ञ और सत्यप्रतिज्ञ वानरराज सुग्रीव भी जब श्रीरामचन्द्रजी को ऐसी अवस्था में देखेंगे तो स्वयं भी प्राणविसर्जन कर देंगे। तत्पश्चात् पतिशोक से पीड़ित हो दुःखितचित्त, दीन, व्यथित और आनन्दशून्य हुई तपस्विनी रुमा भी जान दे देगी।
फिर तो रानी तारा भी जीवित नहीं रहेंगी। वे वाली के विरहजनित दुःख से तो पीड़ित थी ही, इस नूतन शोक से कातर हो शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँगी।
माता-पिता के विनाश और सुग्रीव के मरणजनित संकट से पीड़ित हो कुमार अंगद भी अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे। तदनन्तर स्वामी के दुःख से पीड़ित हुए सारे वानर अपने हाथों और मुक्कों से सिर पीटने लगेंगे। यशस्वी वानरराज ने सान्त्वनापूर्ण वचनों और दान-मान से जिनका लालन-पालन किया था, वे वानर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे।न ऐसी अवस्था में शेष वानर वनों, पर्वतों और गुफाओं में एकत्र होकर फिर कभी क्रीड़ा-विहार का आनन्द नहीं लेंगे। अपने राजा के शोक से पीड़ित हो सब वानर अपने पुत्र, स्त्री और मन्त्रियोंसहित पर्वतों के शिखरों से नीचे सम अथवा विषम स्थानों में गिरकर प्राण दे देंगे।अथवा सारे विष पी लेंगे या फाँसी लगा लेंगे या जलती आग में प्रवेश कर जायेंगे। उपवास करने लगेंगे अथवा अपने ही शरीर में छुरा भोंक लेंगे।
मेरे वहाँ जाने पर मैं समझता हूँ बड़ा भयंकर आर्तनाद होने लगेगा। इक्ष्वाकुकुल का नाश और वानरों का भी विनाश हो जायगा। इसलिये मैं यहाँ से किष्किन्धापुरी को तो नहीं जाऊँगा। मिथिलेशकुमारी सीता को देखे बिना मैं सुग्रीव का भी दर्शन नहीं कर सकूँगा।
यदि मैं यहीं रहूँ और वहाँ न जाऊँ तो मेरी आशा लगाये वे दोनों धर्मात्मा महारथी बन्धु प्राण धारण किये रहेंगे और वे वेगशाली वानर भी जीवित रहेंगे। जानकीजी का दर्शन न मिलने पर मैं यहाँ वानप्रस्थी हो जाऊँगा।
वानप्रस्थी का अर्थ है की गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ यथा शीघ्र करके, उत्तराधिकारियों को अपने कार्य सौंपकर अपने व्यक्तित्व को धीरे-धीरे सामाजिक, उत्तरदायित्व, पारमार्थिक कार्यों में पूरी तरह लगा देने के लिए वानप्रस्थ संस्कार कराया जाता है। इसी आधार पर समाज को परिपक्व ज्ञान एवं अनुभव सम्पन्न, निस्पृह लोकसेवी मिलते रहते हैं। समाज में व्याप्त अवांछनीयताओं, दुष्प्रवृत्तियों, कुरीतियों के निवारण तथा सत्प्रवृत्तियों, सत्प्रयोजनों के विकास का दायित्व यही भली प्रकार संभाल सकते हैं। ये ही उच्च स्तरीय समाज सेवा, परमार्थ करने के साथ उच्च आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त करने में सफल होते हैं। युग निर्माण अभियान के अंतर्गत इनके भी बड़े सार्थक एवं सफल प्रयोग हो रहे हैं।
मेरे हाथ पर अपने-आप जो फल आदि खाद्य वस्तु प्राप्त हो जायगी, उसी को खाकर रहूँगा या परेच्छा से मेरे मुँह में जो फल आदि खाद्य वस्तु पड़ जायगी, उसी से निर्वाह करूँगा तथा शौच, संतोष आदि नियमों के पालनपूर्वक वृक्ष के नीचे निवास करूँगा।
अथवा सागरतटवर्ती स्थान में, जहाँ फल-मूल और जल की अधिकता होती है, मैं चिता बनाकर जलती हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा।
अथवा आमरण उपवास के लिये बैठकर लिंगशरीरधारी जीवात्मा का शरीर से वियोग कराने के प्रयत्न में लगे हुए मेरे शरीर को कौवे तथा हिंसक जन्तु अपना आहार बना लेंगे। यदि मुझे जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ तो मैं खुशी-खुशी जल-समाधि ले लूँगा। मेरे विचार से इस तरह जल-प्रवेश करके परलोकगमन करना ऋषियों की दृष्टि में भी उत्तम ही है। जिसका प्रारम्भ शुभ है, ऐसी सुभगा, यशस्विनी और मेरी कीर्तिमालारूपा यह दीर्घ रात्रि भी सीताजी को देखे बिना ही बीत चली। अथवा अब मैं नियमपूर्वक वृक्षके नीचे निवास करनेवाला तपस्वी हो जाऊँगा; किंतु उस असितलोचना सीताको देखे बिना यहाँसे कदापि नहीं लौटूंगा।