सचेतन 2.54: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – रावण का सीताजी को प्रलोभन
राक्षसियों से घिरी हुई दीन और आनन्दशून्य तपस्विनी सीता को सम्बोधित करके रावण अभिप्राययुक्त मधुर वचनों द्वारा अपने मन का भाव प्रकट करने लगा।हाथी की ढूँड़ के समान सुन्दर जाँघों वाली सीते! मुझे देखते ही तुम अपने स्तन और उदर को इस प्रकार छिपाने लगी हो, मानो डर के मारे अपने को अदृश्य कर देना चाहती हो। किंतु विशाललोचने! मैं तो तुम्हें चाहता हूँ तुम से प्रेम करता हूँ। समस्त संसार का मन मोहने वाली सर्वांगसुन्दरी प्रिये! तुम भी मुझे विशेष आदर दो—मेरी प्रार्थना स्वीकार करो। यहाँ तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। इस स्थान में न तो मनुष्य आ सकते हैं, न इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दूसरे राक्षस ही, केवल मैं आ सकता हूँ। परन्तु सीते! मुझसे जो तुम्हें भय हो रहा है, वह तो दूर हो ही जाना चाहिये।
भीरु ! (तुम यह न समझो कि मैंने कोई अधर्म किया है) परायी स्त्रियों के पास जाना अथवा बलात् उन्हें हर लाना यह राक्षसों का सदा ही अपना धर्म रहा है—इसमें संदेह नहीं है। मिथिलेशनन्दिनि ! ऐसी अवस्था में भी जब तक तुम मुझे न चाहोगी, तब तक मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूँगा। भले ही कामदेव मेरे शरीर पर इच्छानुसार अत्याचार करे। देवि! इस विषय में तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। प्रिये! मुझ पर विश्वास करो और यथार्थ रूप से प्रेमदान दो। इस तरह शोक से व्याकुल न हो जाओ।
एक वेणी धारण करना, नीचे पृथ्वी पर सोना, चिन्तामग्न रहना, मैले वस्त्र पहनना और बिना अवसर के उपवास करना—ये सब बातें तुम्हारे योग्य नहीं हैं। मिथिलेशकुमारी! मुझे पाकर तुम विचित्र पुष्पमाला, चन्दन, अगुरु, नाना प्रकार के वस्त्र, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य पेय, शय्या, आसन, नाच, गान और वाद्य का सुख भोगो। तुम स्त्रियों में रत्न हो। इस तरह मलिन वेष में न रहो। अपने अंगों में आभूषण धारण करो। सुन्दरि! मुझे पाकर भी तुम भूषण आदि से असम्मानित कैसे रहोगी!
यह तुम्हारा नवोदित सुन्दर यौवन बीता जा रहा है। जो बीत जाता है, वह नदियों के प्रवाह की भाँति फिर लौटकर नहीं आता।
शुभदर्शने! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि रूप की रचना करने वाला लोकस्रष्टा विधाता तुम्हें बनाकर फिर उस कार्य से विरत हो गया; क्योंकि तुम्हारे रूप की समता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है। विदेहनन्दिनि! रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली तुमको पाकर कौन ऐसा पुरुष है, जो धैर्य से विचलित न होगा। भले ही वह साक्षात् ब्रह्मा क्यों न हो। चन्द्रमा के समान मुखवाली सुमध्यमे! मैं तुम्हारे जिस-जिस अंग को देखता हूँ, उसी-उसी में मेरे नेत्र उलझ जाते हैं।
मिथिलेशकुमारी! तुम मेरी भार्या बन जाओ। पातिव्रत्य के इस मोह को छोड़ो। मेरे यहाँ बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ हैं तुम उन सबमें श्रेष्ठ पटरानी बनो। भीरु ! मैं अनेक लोकों से उन्हें मथकर जो-जो रत्न लाया हूँ, वे सब तुम्हारे ही होंगे और यह राज्य भी मैं तुम्हीं को समर्पित कर दूंगा। विलासिनि ! तुम्हारी प्रसन्नता के लिये मैं विभिन्न नगरों की मालाओं से अलंकृत इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा जनक के हाथ में सौंप दूंगा।
इस संसार में मैं किसी दूसरे ऐसे पुरुष को नहीं देखता, जो मेरा सामना कर सके। तुम युद्ध में मेरा वह महान् पराक्रम देखना, जिसके सामने कोई प्रतिद्वन्द्वी टिक नहीं पाता।
मैंने युद्धस्थल में जिनकी ध्वजाएँ तोड़ डाली थीं,वे देवता और असुर मेरे सामने ठहरने में असमर्थ होने के कारण कई बार पीठ दिखा चुके हैं।तुम मुझे स्वीकार करो। आज तुम्हारा उत्तम शृंगार किया जाय और तुम्हारे अंगों में चमकीले आभूषण पहनाये जायँ।
सुमुखि! आज मैं श्रृंगार से सुसज्जित हुए तुम्हारे सुन्दर रूप को देख रहा हूँ। तुम उदारतावश मुझपर कृपा करके शृंगार से सम्पन्न हो जाओ। यहाँ भविष्य का वर्तमान की भाँति वर्णन होने से ‘भाविक’ अलंकार समझना चाहिये।
भीरु ! फिर इच्छानुसार भाँति-भाँतिके भोग भोगो, दिव्य रस का पान करो, विहरो तथा पृथ्वी या धन का यथेष्ट रूप से दान करो।
तुम मुझ पर विश्वास करके भोग भोगने की इच्छा करो और निर्भय होकर मुझे अपनी सेवा के लिये आज्ञा दो। मुझ पर कृपा करके इच्छानुसार भोग भोगती हुई तुम-जैसी पटरानी के भाई-बन्धु भी मनमाने भोग भोग सकते हैं।
‘भद्रे! यशस्विनि! तुम मेरी समृद्धि और धनसम्पत्ति की ओर तो देखो। सुभगे! चीर-वस्त्र धारण करने वाले राम को लेकर क्या करोगी?
‘राम ने विजय की आशा त्याग दी है। वे श्रीहीन होकर वन-वन में विचर रहे हैं, व्रत का पालन करते हैंऔर मिट्टी की वेदी पर सोते हैं। अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है कि वे जीवित भी हैं या नहीं।