सचेतन 2.55: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – रावण का सीताजी को प्रलोभन
अब सीताजी रावण को समझाती हैं और उसे श्रीराम के सामने नगण्य बताना।
रावण ने सीता जी को भरपूर प्रलोभन दिया कहा की मिथिलेशकुमारी! तुम मेरी भार्या बन जाओ। पातिव्रत्य के इस मोह को छोड़ो। मेरे यहाँ बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ हैं तुम उन सबमें श्रेष्ठ पटरानी बनो। भीरु ! मैं अनेक लोकों से उन्हें मथकर जो-जो रत्न लाया हूँ, वे सब तुम्हारे ही होंगे और यह राज्य भी मैं तुम्हीं को समर्पित कर दूंगा। विलासिनि! तुम्हारी प्रसन्नता के लिये मैं विभिन्न नगरों की मालाओं से अलंकृत इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा जनक के हाथ में सौंप दूंगा।
विदेहनन्दिनि! जिनके आगे बगुलों की पंक्तियाँ चलती हैं, उन काले बादलों से छिपी हुई चन्द्रिका के समान तुमको अब राम पाना तो दूर रहा, देख भी नहीं सकते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु इन्द्र के हाथ में गयी हुई कीर्ति को न पा सका, उसी प्रकार राम भी मेरे हाथ से तुम्हें नहीं पा सकते। मनोहर मुसकान, सुन्दर दन्तावलि तथा रमणीय नेत्रोंवाली विलासिनि! भीरु ! जैसे गरुड़ सर्प को उठाले जाते हैं, उसी प्रकार तुम मेरे मन को हर लेती हो।
तुम्हारा रेशमी पीताम्बर मैला हो गया है। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो और तुम्हारे अंगों में आभूषण भी नहीं हैं तो भी तुम्हें देखकर अपनी दूसरी स्त्रियों में मेरा मन नहीं लगता। जनकनन्दिनि! मेरे अन्तःपुर में निवास करने वाली जितनी भी सर्वगुणसम्पन्न रानियाँ हैं, उन सबकी तुम स्वामिनी बन जाओ। काले केशोंवाली सुन्दरी ! जैसे अप्सराएँ लक्ष्मी की सेवा करती हैं, उसी प्रकार त्रिभुवन की श्रेष्ठ सुन्दरियाँ यहाँ तुम्हारी परिचर्या करेंगी। सुभ्र! सुश्रोणि! कुबेर के यहाँ जितने भी अच्छे रत्न और धन हैं, उन सबका तथा सम्पूर्ण लोकों का तुम मेरे साथ सुखपूर्वक उपभोग करो।
देवि! राम तो न तप से, न बलसे, न पराक्रम से, न धन से और न तेज अथवा यश के द्वारा ही मेरी समानता कर सकते हैं। तुम दिव्य रस का पान, विहार एवं रमण करो तथा अभीष्ट भोग भोगो। मैं तुम्हें धन की राशि और सारी पृथ्वी भी समर्पित किये देता हूँ। ललने ! तुम मेरे पास रहकर मौज से मनचाही वस्तुएँ ग्रहण करो और तुम्हारे निकट आकर तुम्हारे भाई-बन्धु भी सुखपूर्वक इच्छानुसार भोग आदि प्राप्त करें।
‘भीरु ! तुम सोने के निर्मल हारों से अपने अंग को विभूषित करके मेरे साथ समुद्र-तटवर्ती उन काननों में विहार करो, जिनमें खिले हुए वृक्षों के समुदाय सब ओर फैले हुए हैं और उन पर भ्रमर मँडरा रहे हैं।
अब सीताजी रावण को समझाती हैं और उसे श्रीराम के सामने नगण्य बताना।
उस भयंकर राक्षस की वह बात सुनकर सीता को बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने दीन वाणी में बड़े दुःख के साथ धीरे-धीरे उत्तर देना आरम्भ किया। उस समय सुन्दर अंगोंवाली पतिव्रता देवी तपस्विनी सीता दुःख से आतुर होकर रोती हुई काँप रही थीं और अपने पतिदेव का ही चिन्तन कर रही थीं। पवित्र मुसकान वाली विदेहनन्दिनी ने तिनके की ओट करके रावण को इस प्रकार उत्तर दिया-‘तुम मेरी ओर से अपना मन हटा लो और आत्मीय जनों (अपनी ही पत्नियों)-पर प्रेम करो। जैसे पापाचारी पुरुष सिद्धि की इच्छा नहीं कर सकता, उसी प्रकार तुम मेरी इच्छा करने के योग्य नहीं हो। जो पतिव्रता के लिये निन्दित है, वह न करने योग्य कार्य मैं कदापि नहीं कर सकती।
क्योंकि मैं एक महान् कुल में उत्पन्न हुई हूँ और ब्याह करके एक पवित्र कुल में आयी हूँ। रावण से ऐसा कहकर यशस्विनी विदेहराजकुमारीने उसकी ओर अपनी पीठ फेर ली और इस प्रकार कहा —’रावण! मैं सती और परायी स्त्री हूँ। तुम्हारी भार्या बनने योग्य नहीं हूँ।
निशाचर! तुम श्रेष्ठ धर्म की ओर दृष्टिपात करो और सत्पुरुषों के व्रत का अच्छी तरह पालन करो। जैसे तुम्हारी स्त्रियाँ तुमसे संरक्षण पाती हैं, उसी प्रकार दूसरों की स्त्रियों की भी तुम्हें रक्षा करनी चाहिये। तुम अपने को आदर्श बनाकर अपनी ही स्त्रियों में अनुरक्त रहो। जो अपनी स्त्रियों से संतुष्ट नहीं रहता तथा जिसकी बुद्धि धिक्कार देने योग्य है, उस चपल इन्द्रियों वाले चञ्चल पुरुष को परायी स्त्रियाँ पराभव को पहुँचा देती हैं उसे फजीहत में डाल देती हैं।
क्या यहाँ सत्पुरुष नहीं रहते हैं अथवा रहने पर भी तुम उनका अनुसरण नहीं करते हो? जिससे तुम्हारी बुद्धि ऐसी विपरीत एवं सदाचारशून्य हो गयी है ?