सचेतन- 27: तैत्तिरीय उपनिषद् आनन्दमिमांसा का रहस्य
तैत्तिरीयोपनिषद् का लक्ष्य यह दिखाना है कि — मनुष्य जिसे “सुख” समझता है (धन, शरीर, पद, कला, सौंदर्य, शक्ति आदि), वह सब सीमित और क्षणभंगुर है।
अगर उस सुख को धीरे-धीरे 100–100 गुना बढ़ाते चलें, तब भी उसका एक अंत है।
लेकिन आत्मा का आनंद (ब्रह्मानन्द) — उसके परे है, और अनंत है।
भौतिक और दैवी सुख क्यों सीमित हैं?
- भौतिक सुख (मानव का सुख):
ये सुख इंद्रिय और मन पर आधारित होते हैं।
स्वादिष्ट भोजन = जीभ की तृप्ति,
सुंदर संगीत = कान की तृप्ति,
पद और ऐश्वर्य = अहंकार की तृप्ति।
चाहे ये सुख मनुष्य के हों या देवताओं के (गंधर्व, इन्द्र आदि), ये सब बाहरी साधनों पर निर्भर हैं। इनकी सीमा है — समय, परिस्थिति और शरीर तक।
इनका अंत निश्चित है, इसलिए ये सुख नश्वर और क्षणभंगुर हैं।
- यह शरीर, इंद्रियों और बाहरी वस्तुओं पर निर्भर है।
- जैसे स्वाद, संगीत, शक्ति, धन, पद।
- इनकी सीमा है क्योंकि शरीर नश्वर है और इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होतीं।
- दैवी सुख (गंधर्व, देव, इन्द्र, बृहस्पति आदि का सुख):
- उपनिषद मानता है कि देवताओं का भी सुख हमारी तुलना में कहीं अधिक है।
- लेकिन यह भी समय और स्थान से बंधा है।
- देवता भी जन्म–मरण के नियम से परे नहीं हैं, इसलिए उनका सुख भी नश्वर है।
आत्मा और ब्रह्म का आनंद क्यों असीम है?
ब्रह्मानन्द इंद्रियों या मन से परे है। यह तब होता है जब आत्मा और ब्रह्म का एकत्व अनुभव किया जाता है।यहाँ न कोई इच्छा शेष रहती है, न कोई भय — केवल पूर्णता और शांति। यह असीम (Infinite), अक्षय (Never-ending), और शाश्वत (Eternal) है।
इसे उपनिषद् कहता है: “आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्” — परम आनंद ही ब्रह्म है।
- आत्मा का आनंद किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं करता।
- यह भीतर की शांति, आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्म से एकत्व का अनुभव है।
- यहाँ “मैं” और “मेरा” का भेद मिट जाता है।
- जब मन और बुद्धि शांत होकर आत्मा में लीन होते हैं, तब जो आनंद मिलता है वह कभी घटता-बढ़ता नहीं, हमेशा एक-सा रहता है।
यही है ब्रह्मानन्द — आत्मा और ब्रह्म की एकता से प्राप्त होने वाला परम सुख।
✨ रहस्य का सार
- हर भौतिक सुख = सीमित
- चाहे वह मानव का हो या देवताओं का।
- वह इंद्रियों और बाहरी वस्तुओं पर निर्भर है।
- हर स्तर पर सुख 100 गुना बढ़ सकता है
- मानव → गंधर्व → पितृ → देव → इन्द्र → बृहस्पति → प्रजापति → ब्रह्मलोक।
- लेकिन यह केवल मात्रात्मक वृद्धि है, गुणात्मक नहीं।
- ब्रह्मानन्द = गुणात्मक छलांग
- यह सुख गणना से परे है।
- यह न तो शरीर पर टिका है, न मन या बुद्धि पर, बल्कि आत्मा पर आधारित है।
इसीलिए उपनिषद् कहता है: “आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्” (उसने जाना कि परम आनन्द ही ब्रह्म है।)