सचेतन- 16:तैत्तिरीय उपनिषद्: अन्न ही ब्रह्म है
सचेतन- 16:तैत्तिरीय उपनिषद्: अन्न ही ब्रह्म है
“अन्नं ब्रह्मेति” (तैत्तिरीय उपनिषद्) का अर्थ है – भोजन ही ब्रह्म है।
क्योंकि भोजन (अन्न) से ही शरीर का पोषण और जीवन का आधार बनता है।
शरीर के बिना साधना या ज्ञान सम्भव नहीं, और शरीर अन्न पर टिका है।
अन्न से प्राण शक्ति मिलती है, जिससे मन और बुद्धि भी ठीक ढंग से काम करते हैं।
इसलिए अन्न केवल भोजन नहीं, बल्कि पवित्र ऊर्जा है जो हमें जीवित रखती है।
उपनिषद् यह भी बताता है कि जैसे ब्रह्मांड का आधार ब्रह्म है, वैसे ही व्यक्तिगत स्तर पर जीवित रहने का आधार अन्न है।
इसलिए अन्न को ब्रह्म स्वरूप मानकर उसका आदर करना चाहिए।
🌾 “अन्न ही ब्रह्म है — भोजन का आदर और शुद्ध सेवन करना, ईश्वर की पूजा करने के समान है।”
🌾 कहानी: अन्न ही ब्रह्म है
गाँव में एक ज्ञानी साधु रहते थे।
एक दिन उनके शिष्य ने पूछा—
“गुरुदेव, आप हमेशा भोजन को हाथ जोड़कर प्रणाम क्यों करते हैं? यह तो बस खाने की चीज़ है।”
साधु मुस्कुराए और बोले—
“आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।”
उन्होंने तीन दिन तक शिष्य को कुछ भी खाने को नहीं दिया।
पहले दिन शिष्य बेचैन हुआ,
दूसरे दिन उसका सिर चकराने लगा,
तीसरे दिन तो वह बोलने और सोचने की ताकत भी खो बैठा।
तब साधु ने उसे रोटी दी।
जैसे ही शिष्य ने खाया, उसकी आँखों में चमक लौट आई और शरीर में ताकत आ गई।
साधु बोले—
“देखो बेटा, जैसे आत्मा से शरीर को जीवन मिलता है, वैसे ही अन्न से आत्मा को साधन मिलता है।
बिना अन्न के न शरीर टिकेगा, न साधना होगी। यही कारण है कि उपनिषद् कहता है— अन्नं ब्रह्मेति।”शिक्षा: भोजन केवल पेट भरने की वस्तु नहीं, बल्कि ब्रह्म का रूप है।
इसलिए अन्न का आदर करो, उसे व्यर्थ न फेंको और कृतज्ञ भाव से ग्रहण करो।