सचेतन- 15:तैत्तिरीय उपनिषद्: ब्रह्मानंदवल्ली-तप, सत्य, और आत्म-संयम
ब्रह्मानंदवल्ली — उस साधक को ब्रह्मानंद (ब्रह्म का आनंद) की अनुभूति तक ले जाती है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्म को केवल जानने की बात नहीं करता, बल्कि ब्रह्म “होने” की बात करता है। और इसका माध्यम है — तप, सत्य, और आत्म-संयम।
तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म केवल एक ज्ञान का विषय नहीं है कि हम उसे “जान” लें, बल्कि वह एक अस्तित्व का अनुभव है — उसे जीना और होना है।
“ब्रह्मविद्या” केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि उस सत्य की अंतरानुभूति है।
यह उपनिषद हमें बताता है कि ब्रह्म कोई बाहरी वस्तु या अलग सत्ता नहीं है, बल्कि वही हमारे भीतर अस्तित्व (सत्), चेतना (चित्), और आनन्द के रूप में धारण है।
इसलिए साधना का लक्ष्य केवल ब्रह्म का वर्णन करना या उसे शास्त्रों से जानना नहीं है, बल्कि स्वयं उस ब्रह्मस्वरूप में स्थित होना है।
संक्षेप में,
👉 “ब्रह्म को जानना” = जानकारी, बुद्धि का विषय।
👉 “ब्रह्म होना” = आत्मानुभूति, जीवित अनुभव।
उदाहरण: जैसे मिठास के बारे में सुनना एक अलग बात है, परंतु वास्तव में चीनी को चख लेना और उसकी मिठास हो जाना ही अनुभव है।
उसी तरह, तैत्तिरीयोपनिषद् कहता है — ब्रह्म को केवल जानो मत, ब्रह्म बन जाओ।
“ब्रह्म” को समझना आसान नहीं है, लेकिन उपनिषद हमें इसे सरल संकेतों में बताते हैं।
ब्रह्म का अर्थ: अनंत और सर्वव्यापक सत्य – जो कभी नष्ट नहीं होता। चेतना का मूल स्रोत – जिससे सब जीवित हैं। आनन्द का आधार – जो परम सुख और शांति देता है। वह न तो केवल “ईश्वर” है, न केवल “प्रकृति”, बल्कि सब कुछ उसी से प्रकट हुआ है और उसी में विलीन होता है।
उपनिषद की व्याख्या में कहा गया है की “सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म” (तैत्तिरीयोपनिषद्), ब्रह्म = सत्य (Satya) + ज्ञान (Jnana) + अनंत (Ananta)।
ब्रह्म वही है जिससे यह जगत निकला है, जिसमें यह टिका है, और अंत में जिसमें यह लय होता है।
उदाहरण से समझें: जैसे समुद्र है और लहरें उठती-बैठती हैं। लहर अलग लगती है, पर असल में वह भी समुद्र ही है। वैसे ही यह सारा जगत, हम सब जीव – ब्रह्म ही हैं।
ब्रह्म के अनुभव का रूप होता है- जब हम कहते हैं “मैं हूँ”, वह “होना” (अस्तित्व) ही ब्रह्म का अंश है। जब हम चेतना और ज्ञान का अनुभव करते हैं – वह भी ब्रह्म है।जब हम भीतर गहरे सुख-शांति को महसूस करते हैं – वही आनन्द ब्रह्म है।इसलिए कहा गया – “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ)।
“अन्नं ब्रह्मेति… प्राणो ब्रह्मेति… मनो ब्रह्मेति… विज्ञानं ब्रह्मेति… आनन्दो ब्रह्मेति” (भौतिक से सूक्ष्म तक, सब ब्रह्म ही है)
आपका उद्धरण उपनिषदों के उस गहरे सत्य को संक्षेप में कह देता है — कि सृष्टि के हर स्तर पर, सबसे स्थूल (अन्न) से लेकर सबसे सूक्ष्म (आनन्द) तक, सबका मूल और सार ब्रह्म ही है।
संक्षेप में अर्थ:
- अन्नं ब्रह्मेति — जो भोजन/पदार्थ है, वही ब्रह्म है; शरीर इसी पर टिका है।
- प्राणो ब्रह्मेति — जो जीवन-शक्ति (श्वास, ऊर्जा) है, वही ब्रह्म है।
- मनो ब्रह्मेति — जो विचार और भावना का केंद्र है, वही ब्रह्म है।
- विज्ञानं ब्रह्मेति — जो ज्ञान और विवेक का स्रोत है, वही ब्रह्म है।
- आनन्दो ब्रह्मेति — जो परम सुख और पूर्णता है, वही ब्रह्म है।
“अन्नं ब्रह्मेति” (तैत्तिरीय उपनिषद्) का अर्थ है –
भोजन ही ब्रह्म है।
क्योंकि भोजन (अन्न) से ही शरीर का पोषण और जीवन का आधार बनता है।
शरीर के बिना साधना या ज्ञान सम्भव नहीं, और शरीर अन्न पर टिका है।
अन्न से प्राण शक्ति मिलती है, जिससे मन और बुद्धि भी ठीक ढंग से काम करते हैं।इसलिए अन्न केवल भोजन नहीं, बल्कि पवित्र ऊर्जा है जो हमें जीवित रखती है।
उपनिषद् यह भी बताता है कि जैसे ब्रह्मांड का आधार ब्रह्म है, वैसे ही व्यक्तिगत स्तर पर जीवित रहने का आधार अन्न है।
इसलिए अन्न को ब्रह्म स्वरूप मानकर उसका आदर करना चाहिए।