सचेतन- 07:  आत्मबोध की यात्रा -“जब तक ब्रह्म नहीं जाना— जगत सत्य लगता है”

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सचेतन- 07:  आत्मबोध की यात्रा -“जब तक ब्रह्म नहीं जाना— जगत सत्य लगता है”

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“कभी आपने दूर से चमकती हुई कोई चीज़ देखी है…
और लगा हो— यह तो चाँदी है?

आप पास गए…
और पता चला— वह तो सीप थी।
चाँदी नहीं।

शंकराचार्य कहते हैं—
जगत का ‘सत्य’ भी कुछ ऐसा ही है।

तावत्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा।
यावन्न ज्ञायते ब्रह्म सर्वाधिष्ठानमद्वयम्॥७॥

“यह जगत तब तक सत्य जैसा प्रतीत होता है,
जब तक ब्रह्म— जो सबका आधार है,
जो एकमेव है—
उसे जाना नहीं जाता।

जैसे सीप में चाँदी का भ्रम
सीप को न पहचानने तक बना रहता है।”

जगत ‘सत्य’ क्यों लगता है?

“दोस्तों,
जगत में हम रोज़ जीते हैं—
रिश्ते, काम, सम्मान, अपमान, लाभ, हानि…

इसलिए यह सब
हमें बहुत वास्तविक लगता है।

लेकिन शंकराचार्य का प्रश्न यह है—
यह वास्तविकता किसकी है?
क्या यह अपनी है?
या किसी और से उधार ली हुई है?

वेदांत कहता है—
जगत को जो ‘सत्य-सा’ लगता है,
वह उसकी अपनी वास्तविकता नहीं है।
वह आधार (अधिष्ठान) से उधार ली हुई है।”

‘अधिष्ठान’ क्या है? “अधिष्ठान का अर्थ—
वह आधार,  जिस पर कोई चीज़ दिखाई देती है।

जैसे मिट्टी पर घड़ा।
घड़ा नाम-रूप है,
मिट्टी उसका आधार है।

घड़े को जो ‘अस्तित्व’ जैसा लगता है,
वह मिट्टी से आता है।

ठीक वैसे ही—
जगत का अधिष्ठान है ब्रह्म।
और ब्रह्म है—
अद्वयम्: एक, बिना दूसरे के।

रजत का उदाहरण 

“शंकराचार्य अब एक बहुत प्रसिद्ध उदाहरण देते हैं—

समुद्र किनारे सीप पड़ी है।
धूप में चमक रही है।
दूर से देखने वाला सोचता है—
‘यह तो चाँदी है।’

और वह चाँदी समझकर
उसी की तरफ भागता है।

लेकिन समस्या क्या है?
चाँदी वहाँ है ही नहीं।
सत्य वहाँ सिर्फ़ सीप है।

चाँदी का अनुभव
‘दिखता’ तो है—
पर वह भ्रम है।

जब तक सीप को सीप नहीं जानोगे,
चाँदी ‘सत्य’ लगेगी।

उसी तरह—
जब तक ब्रह्म को नहीं जानोगे,
जगत ‘सत्य’ लगेगा—
और वही जगत
राग-द्वेष, डर, आसक्ति, दुख—
सब पैदा करेगा।”

इसका हमारे जीवन में अर्थ 

“दोस्तों,
यह बात बहुत व्यावहारिक है।

हम जिन चीज़ों के पीछे भागते हैं—
पद, प्रतिष्ठा, पैसा, संबंध—
कई बार हम उन्हें
‘चाँदी’ मान लेते हैं।

और जब वे नहीं मिलतीं,
तो दुख होता है।
मिल भी जाएँ,
तो डर रहता है— छिन न जाएँ।

शंकराचार्य कहते हैं—
दुख का कारण यह नहीं कि
चीज़ें हैं।
दुख का कारण यह है कि
हमने उन्हें परम सत्य मान लिया।

जब ब्रह्म— अधिष्ठान—
समझ में आता है,
तो जगत बना रहता है…
पर उसका भार गिर जाता है।

फिर आप चीज़ों का उपयोग करते हैं,
पर उनसे बंधते नहीं।”

‘ब्रह्म जानना’ क्या है? 

“यह ‘ब्रह्म जानना’
किसी दूर की उपलब्धि नहीं है।

यह समझ है कि—
जिस ‘मैं’ को मैं खोज रहा हूँ,
वह किसी वस्तु में नहीं है।
वह अधिष्ठान है—
वह आधार है—
वह चेतना है।

जब यह स्पष्ट हो जाता है—
तो जगत ‘सत्य’ नहीं रहता,
मिथ्या हो जाता है—
यानी दिखाई देता है,
पर बाँध नहीं पाता।”

“दोस्तों,
सीप को जान लेने के बाद
आप फिर कभी उसे चाँदी नहीं समझते।

ठीक वैसे ही—
ब्रह्म को जान लेने के बाद
जगत वही रहता है,
पर उसका भ्रम टूट जाता है।

यही आत्मबोध है।
यही जागरण है।Stay Sachetan…
Stay Awake…
Stay Free.”

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