सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है

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सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्: मन ही ब्रह्म है

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सचेतन- 18: तैत्तिरीय उपनिषद्:  मन ही ब्रह्म है

“मनो ब्रह्मेति” का अर्थ है —
मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन ही वह केंद्र है जहाँ विचार, भावना, इच्छा और संकल्प जन्म लेते हैं।

मन क्यों ब्रह्म है? मन केवल सोचने का यंत्र नहीं है, बल्कि चेतना का दर्पण है। हर अनुभव (सुख, दुख, प्रेम, क्रोध, शांति) मन में ही घटित होता है। यदि मन शांत है, तो संसार शांत लगता है। यदि मन अशांत है, तो ब्रह्मांड भी अशांत प्रतीत होता है। इसलिए उपनिषद कहता है: मन स्वयं ही ब्रह्म है।

मन की शक्ति, विचारों का स्रोत – “मैं कौन हूँ?” जैसे प्रश्न मन से ही उठते हैं।
भावनाओं का आधार – करुणा, दया, प्रेम – सब मन में प्रकट होते हैं।
संकल्प-शक्ति – मन ही कर्म को दिशा देता है।
हमारे पाँच कोश में से 

अन्नमय कोश – शरीर।
प्राणमय कोश – जीवन-ऊर्जा।
मनोमय कोश – मन, विचार और भावनाएँ।
यहाँ उपनिषद कहता है — “मनो ब्रह्मेति”।
क्योंकि इस स्तर पर साधक समझता है कि ब्रह्म मन के भीतर ही है।

जैसे चश्मे के रंग से हम पूरी दुनिया को उसी रंग में देखते हैं।
यदि चश्मा नीला है तो सब नीला लगता है, लाल है तो सब लाल।
वैसे ही, मन जैसा है – वैसा ही हमें संसार दिखता है।
इसीलिए उपनिषद मन को ब्रह्म कहता है।
“मनो ब्रह्मेति” = मन ही ब्रह्म है।
क्योंकि ब्रह्म की अनुभूति मन के द्वारा ही संभव है —
मन शांत हो तो आत्मा प्रकट होती है। इसका भाव यह है कि ब्रह्म केवल बाहर खोजने की वस्तु नहीं है, बल्कि हमारे भीतर के मन में ही उसकी झलक मिलती है।

मन ही वह दर्पण है जिसमें जगत और आत्मा दोनों प्रतिबिंबित होते हैं।
यदि मन चंचल और अशांत है तो ब्रह्म की पहचान नहीं होती। यदि मन निर्मल और शांत है तो उसी में ब्रह्म प्रकट हो जाता है।

“मनो ब्रह्मेति” — क्योंकि मन ही साधना और अनुभव का द्वार है।

जैसे आसमान में बादल छा जाएँ तो सूरज नहीं दिखता, पर वह वहीं है।
जब मन के विकार (क्रोध, भय, चिंता) हट जाते हैं, तो ब्रह्म का प्रकाश भीतर से अनुभव होता है।

 मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन के माध्यम से ही हम ब्रह्म को जान सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं और अंततः उसी में स्थित हो सकते हैं।

साधक और दर्पण

एक बार एक साधक अपने गुरु के पास गया और बोला – “गुरुदेव, मैं ब्रह्म को देखना चाहता हूँ। वह कहाँ है? क्या वह आसमान में है, या किसी पर्वत पर?”

गुरु मुस्कुराए और साधक को एक चमकता हुआ दर्पण दिया। बोले – “जाओ, इसमें ब्रह्म को देखो।”

साधक ने दर्पण में देखा, तो उसमें अपना ही चेहरा दिखाई दिया। वह उलझन में बोला – “गुरुदेव! इसमें तो मैं ही दिख रहा हूँ, ब्रह्म कहाँ है?”

गुरु ने शांत स्वर में कहा –
“ब्रह्म कहीं बाहर नहीं, तुम्हारे अपने मन में है।
यह दर्पण केवल प्रतीक है। जैसे दर्पण में चेहरा दिखता है, वैसे ही मन में ब्रह्म का प्रतिबिंब प्रकट होता है।
लेकिन जब दर्पण पर धूल जम जाती है, तो चेहरा साफ नहीं दिखता।
उसी तरह, जब मन में क्रोध, लोभ, भय और चिंता की धूल जम जाती है, तब ब्रह्म छिप जाता है।
मन को शुद्ध करोगे, तो ब्रह्म स्वयं झलकने लगेगा।”मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन को साध कर ही ब्रह्म का अनुभव होता है।
मन जब शांत और निर्मल हो जाता है, तब वह ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है।
जैसे दर्पण बिना दाग के साफ-साफ चेहरा दिखाता है,
वैसे ही शुद्ध मन ब्रह्म को प्रकट कर देता है।

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