सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है।
सचेतन- 17:तैत्तिरीय उपनिषद्: प्राण ही ब्रह्म है।
“प्राणो ब्रह्मेति” का अर्थ है – प्राण ही ब्रह्म है।
यह उपनिषद की शिक्षा है कि ब्रह्म को केवल बाहर या किसी दूरस्थ सत्ता में मत खोजो, बल्कि अपने भीतर की जीवन-शक्ति (श्वास, ऊर्जा, चेतना का प्रवाह) में पहचानो।
प्राण क्या है? श्वास का आना-जाना ही नहीं, बल्कि वह अदृश्य ऊर्जा है जो शरीर को जीवित रखती है। जब प्राण निकल जाता है, शरीर केवल जड़ पदार्थ रह जाता है।
क्यों कहा गया “प्राणो ब्रह्मेति”? क्योंकि प्राण ही वह शक्ति है जो पूरे ब्रह्मांड में गतिशीलता और जीवन का संचार करती है। प्राण से ही मन, इंद्रियां, और शरीर सब सक्रिय रहते हैं। इसलिए प्राण को ही ब्रह्म का प्रतीक माना गया।
पंचप्राणों के रूप में (उपनिषद इन्हें भी समझाते हैं):
प्राण – श्वसन और हृदय की गति।
अपान – नीचे की ओर जाने वाली शक्ति (त्याग, मल-विसर्जन)।
व्यान – पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार।
उदान – ऊपर उठाने वाली शक्ति (वाणी, चेतना की ऊर्ध्वगति)।
समान – पाचन और संतुलन की शक्ति।
इन सबका योग ही जीवन है, और यही ब्रह्म की अनुभूति का द्वार है।
उपनिषद् का संदेश है —
अन्न से शरीर (अन्नमय कोश) बनता है।
प्राण से वह जीवित होता है (प्राणमय कोश)।
फिर मन, ज्ञान और आनन्द की परतें आती हैं।
इसलिए कहा गया –
“प्राणो ब्रह्मेति” = प्राण स्वयं ब्रह्म है।
क्योंकि जब प्राण है, तो सब है; और जब प्राण नहीं है, तो कुछ भी नहीं।
🌿 प्राण और पञ्चप्राण
उपनिषद् कहता है –
“प्राण ही ब्रह्म है”
क्योंकि जीवन का आधार यही पाँच प्रकार की प्राण-शक्तियाँ हैं:
1. प्राण
- जो श्वास लेने और छोड़ने का काम करता है।
- नाक और फेफड़ों से जुड़ा है।
- जैसे हवा अंदर–बाहर होती है, वैसे ही जीवन चलता है।
2. अपान
- जो शरीर से नीचे की ओर जाने वाले कार्य (मल, मूत्र, प्रसव, अशुद्धि निकालना) करता है।
- निचले अंगों से जुड़ा है।
- शरीर को शुद्ध और संतुलित रखता है।
3. समान
- जो भोजन को पचाने और ऊर्जा में बदलने का काम करता है।
- नाभि क्षेत्र में रहता है।
- अन्न को रस में बदलकर पूरे शरीर में ऊर्जा पहुँचाता है।
4. उदान
- जो ऊपर की ओर जाने वाली शक्ति है।
- वाणी, बोलना, डकारना, हँसना, रोना सब इसी से होते हैं।
- मृत्यु के समय आत्मा को शरीर से बाहर ले जाने वाला भी यही है।
5. व्यान
- जो पूरे शरीर में रक्त, रस और ऊर्जा को फैलाता है।
- नसों और धमनियों में चलता है।
- शरीर को सजीव और गतिशील रखता है।
अन्नं ब्रह्मेति — भोजन ब्रह्म है, क्योंकि शरीर उसी पर टिका है।
प्राणो ब्रह्मेति — प्राण ब्रह्म है, क्योंकि जीवन का मूल यही श्वास-ऊर्जा है।
और यह प्राण पाँच रूपों में (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) हमें जीवित और सक्रिय रखते हैं।
भोजन और प्राण दोनों का आदर करो।
भोजन बिना प्राण नहीं टिकता, और प्राण बिना भोजन कमजोर हो जाता है।
दोनों मिलकर ही जीवन को ब्रह्ममय बनाते हैं।
एक बार देवताओं में झगड़ा हुआ—
कौन बड़ा है? — अन्न (भोजन), प्राण (श्वास), वाणी, दृष्टि, श्रवण सब अपने को श्रेष्ठ बताने लगे।
तब प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर जाने लगा।
जैसे ही प्राण बाहर निकला, आँखें अंधी हो गईं, कान बहरे हो गए, वाणी रुक गई, शरीर ढीला पड़ गया।
सभी घबरा गए और बोले—
“ठहरो प्राण! तुम ही सबसे बड़े हो। तुम्हारे बिना हम कुछ भी नहीं।”
तब से सबने स्वीकार किया—
“प्राण ही वास्तव में ब्रह्म है।”🌿 सार:
प्राण यानी श्वास ही जीवन है।
बिना भोजन कुछ दिन जी सकते हैं, पर बिना प्राण एक पल भी नहीं।
इसीलिए उपनिषद् सिखाता है—
प्राण को ब्रह्म मानकर उसका आदर करो, और श्वास को सजगता से लो।