सचेतन- 20:तैत्तिरीय उपनिषद्: पुरुष-रूपक
पुरुष-रूपक का अर्थ: जब किसी अमूर्त या दार्शनिक सत्य (जैसे अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश) को समझाना कठिन हो, तो उपनिषद् उसे “पुरुष” (मनुष्य-आकृति) के रूप में दिखाते हैं।
“कोश” (Sanskrit: कोश) का अर्थ है — आवरण या परत।
उपनिषदों में कहा गया है कि आत्मा (पुरुष / ब्रह्म) सीधे दिखाई नहीं देता, वह पाँच परतों (पंचकोश) से ढँका हुआ है।
जैसे प्याज़ की परतें होती हैं, वैसे ही आत्मा इन आवरणों के भीतर स्थित है।
“पुरुष” शब्द का कई संदर्भों में अलग-अलग अर्थ होता है।
- सामान्य अर्थ में –
पुरुष = मनुष्य (विशेषकर नर/आदमी)। - दार्शनिक/आध्यात्मिक अर्थ में (सांख्य और वेदांत में) –
- पुरुष = आत्मा या शुद्ध चेतना।
- सांख्य दर्शन में “पुरुष” निष्क्रिय, शुद्ध चैतन्य है, जबकि “प्रकृति” सक्रिय, सृजनशील शक्ति है।
- पुरुष सब अनुभवों का साक्षी है, जो स्वयं कर्म नहीं करता लेकिन सबका आधार है।
- पुरुष = आत्मा या शुद्ध चेतना।
- वेदों और उपनिषदों में –
- “पुरुषसूक्त” में पुरुष को परमेश्वर/ब्रह्म कहा गया है — वह ब्रह्मांडव्यापी सत्ता है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है।
- “सहस्रशीर्षा पुरुषः” = जिसका हजार सिर, हाथ, और पैर हैं यानी जो सर्वव्यापी है।
- “पुरुषसूक्त” में पुरुष को परमेश्वर/ब्रह्म कहा गया है — वह ब्रह्मांडव्यापी सत्ता है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है।
सरल शब्दों में:
पुरुष = चेतना, आत्मा, या वह परम सत्ता जो संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है।
सहस्रशीर्षा पुरुषः पुरुष (परमात्मा) के सहस्र (अनंत) सिर, नेत्र और चरण हैं। इसका अर्थ है कि वह सर्वव्यापी है – हर जीव और हर अंश में वही विद्यमान है।
पुरुष के शरीर से समाज की संरचना बताई गई है –
- मुख से ब्राह्मण (ज्ञान और उपदेश देने वाले)
- भुजाओं से क्षत्रिय (रक्षक और शासक)
- जंघाओं से वैश्य (व्यापार और कृषि करने वाले)
- चरणों से शूद्र (सेवा और श्रम करने वाले)
यह प्रतीकात्मक है, इसका अर्थ है कि समाज के सभी अंग पुरुष के शरीर जैसे एक दूसरे पर आश्रित हैं।
ब्रह्मांड की रचना
पुरुष के त्याग (बलिदान) से ही सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, वायु और दिशाएँ उत्पन्न हुईं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद भी उसी पुरुष से प्रकट हुए।