सचेतन- 24: तैत्तिरीय उपनिषद्:रथ रूपक

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सचेतन- 24: तैत्तिरीय उपनिषद्:रथ रूपक

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“रथ रूपक”। यह आत्मा और शरीर के संबंध को बहुत सरल और प्रभावी तरीके से समझाता है।

आत्मा क्या है? आत्मा हमारी असली पहचान है।

यह अमर, शाश्वत और अविनाशी है। यह न दिखाई देती है, न ही छूई जा सकती है, लेकिन हर प्राणी में इसका अस्तित्व है। आत्मा ही वह चेतना है, जिससे शरीर चलता है। गीता कहती है – आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न जल सकती है, न काटी जा सकती है।
आत्मा = विद्युत (करंट) जैसी है, जो बल्ब में दिखाई नहीं देती, पर बल्ब को जलाती है।

✨ शरीर क्या है? शरीर वह भौतिक ढांचा है, जिसमें आत्मा रहती है।
यह पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना है।
यह नश्वर है – जन्म लेता है, बढ़ता है, बूढ़ा होता है और अंत में नष्ट हो जाता है।
शरीर आत्मा का अस्थायी घर या वाहन है।
शरीर = बल्ब जैसा है, जो करंट (आत्मा) आने पर चमकता है और करंट (आत्मा) निकल जाने पर बुझ जाता है।

आत्मा = असली “मैं”
शरीर = अस्थायी “घर”

जब तक आत्मा शरीर में है, शरीर जीवित है।
जैसे ही आत्मा निकल जाती है, शरीर मृत हो जाता है।

कठोपनिषद् का रथ रूपक

उपनिषद् कहता है:

  1. शरीर = रथ
    • शरीर उस रथ के समान है, जिसमें आत्मा यात्रा कर रही है।
    • यह साधन है, मंज़िल तक पहुँचने का वाहन है।
  2. इंद्रियाँ = घोड़े
    • पाँच इंद्रियाँ (नेत्र, कान, नाक, जीभ, त्वचा) उन घोड़ों की तरह हैं जो अलग-अलग दिशाओं में भागना चाहती हैं।
    • यदि इन्हें नियंत्रित न किया जाए, तो रथ भटक जाएगा।
  3. मन = लगाम
    • लगाम घोड़ों को नियंत्रित करती है।
    • वैसे ही मन इंद्रियों की दिशा को नियंत्रित करता है।
    • यदि मन चंचल है, तो इंद्रियाँ इधर-उधर दौड़ेंगी।
  4. बुद्धि = सारथी (कर्त्ता)
    • सारथी (driver) घोड़ों को नियंत्रित करने के लिए लगाम का प्रयोग करता है।
    • वैसे ही बुद्धि, मन को विवेकपूर्वक नियंत्रित करती है और सही दिशा देती है।
    • यदि बुद्धि जागरूक और विवेकपूर्ण है, तो यात्रा सुरक्षित और सार्थक होगी।
  5. आत्मा = रथी (स्वामी)
    • आत्मा उस रथ में बैठा हुआ स्वामी है।
    • वह यात्री है, जो इस जीवन-यात्रा का अनुभव ले रहा है।
    • असली मालिक आत्मा है, न कि शरीर या इंद्रियाँ।

यह एक गूढ़ संदेश है: यदि बुद्धि (सारथी) विवेकपूर्ण है, तो मन (लगाम) ठीक काम करता है, इंद्रियाँ (घोड़े) नियंत्रित रहती हैं, और शरीर (रथ) सीधी राह पर चलता है। आत्मा अपने गंतव्य (मोक्ष) तक पहुँच सकती है।
लेकिन यदि बुद्धि अज्ञानी या भ्रमित हो जाए, तो मन इंद्रियों को रोक नहीं पाता, घोड़े (इंद्रियाँ) उग्र होकर इधर-उधर भागने लगते हैं, और रथ (शरीर) दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। आत्मा अपनी मंज़िल तक नहीं पहुँच पाती।
उदाहरण

एक व्यक्ति शराब, क्रोध या लालच के वश में आकर अपनी बुद्धि खो बैठता है।
उसकी इंद्रियाँ (घोड़े) बेकाबू हो जाती हैं — आँखें गलत चीज़ें देखने दौड़ती हैं, कान केवल चुगली सुनते हैं, जीभ केवल स्वाद के पीछे भागती है।
मन (लगाम) कमजोर हो जाता है।
परिणाम — जीवन का रथ भटककर दुख और विनाश की ओर चला जाता है।

दूसरी ओर, एक साधक अपनी बुद्धि को विवेकपूर्ण बनाता है।
वह सत्य और धर्म को मार्गदर्शन मानता है।
मन शांत है, इंद्रियाँ संयमित हैं।
रथ सीधे रास्ते से मंज़िल (मोक्ष/आत्मसाक्षात्कार) की ओर बढ़ता है।

✨ संक्षेप में

👉 शरीर = रथ
👉 इंद्रियाँ = घोड़े
👉 मन = लगाम
👉 बुद्धि = सारथी
👉 आत्मा = स्वामी (रथी)संदेश:
यदि सारथी (बुद्धि) विवेकशील है, तो जीवन की यात्रा सुरक्षित है और आत्मा अपनी मंज़िल (मोक्ष) तक पहुँचती है।
यदि बुद्धि अंधी या मोहग्रस्त है, तो जीवन भटक जाता है। विज्ञानमय कोश को “कर्त्ता” इसलिए कहा गया है क्योंकि वही निर्णायक शक्ति है, जो मन और प्राण को नियंत्रित करके शरीर से सही कर्म करवाती है।

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