सचेतन- 10: “ऋतम् वद” — सत्य और नियम में जियो, वही परम जीवन है।
ऋत के माध्यम से अमृत (ज्ञान, आत्मा, स्वर्ग) की अनुभूति होती है।
“ऋतम् वद” का अर्थ है — सत्य बोलो, सत्य जियो, और जीवन को नियम व नैतिकता के मार्ग पर चलाओ।
यह केवल सच बोलने की बात नहीं, बल्कि अपने विचार, वाणी और कर्म में सत्य, न्याय, और ब्रह्मांडीय व्यवस्था को अपनाने की शिक्षा है।
“सत्य” — जो अटल और शुद्ध है, उसे जानना और उसी के अनुसार जीना।
“नियम” — जो जीवन को संतुलन और अनुशासन में रखे, उनका पालन करना।
सार: जब हम सत्य और नियम के संग जीते हैं, तब हमारा जीवन न केवल व्यक्तिगत रूप से सफल होता है, बल्कि संपूर्ण समाज और प्रकृति के साथ भी सामंजस्य में रहता है — यही परम जीवन है।
“ऋतेन दीधारममृतं स्वर्विदं”
भावार्थ: ऋत के माध्यम से अमृत (ज्ञान, आत्मा, स्वर्ग) की अनुभूति होती है।
ऋत के लक्षण (नैतिक और दार्शनिक अर्थ में):
ऋत के क्षेत्र | उसका स्वरूप |
ब्रह्मांड में | ग्रहों की गति, ऋतुएँ, प्राकृतिक संतुलन |
समाज में | सत्य, धर्म, न्याय, कर्तव्य |
व्यक्तिगत जीवन में | सदाचार, संयम, ईमानदारी, करुणा |
आत्मिक रूप में | ईश्वर के नियमों का पालन, अहिंसा, ध्यान |
ऋत और धर्म में अंतर:
1. ऋत (ऋतम्)
- अर्थ: ब्रह्मांड की मूल व्यवस्था, जो सत्य, नियम, और संतुलन पर आधारित है।
- स्वरूप: शाश्वत और सार्वभौमिक — यह न समय से बदलता है, न स्थान से।
- केन्द्र: प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय नियम जिनके अनुसार पूरी सृष्टि चलती है।
2. धर्म
- अर्थ: वह आचरण, कर्तव्य और मूल्य जो व्यक्ति, समाज और युग के अनुसार उचित हो।
- स्वरूप: स्थायी मूल्यों पर आधारित, लेकिन समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार लचीला।
- केन्द्र: नैतिक और सामाजिक आचरण जो जीवन को सही दिशा देता है।
मुख्य अंतर
पहलू | ऋत | धर्म |
स्वरूप | ब्रह्मांडीय और प्राकृतिक नियम | नैतिक और सामाजिक नियम |
परिवर्तनशीलता | अटल, अपरिवर्तनीय | समय और परिस्थिति के अनुसार बदल सकता है |
आधार | सत्य और प्राकृतिक व्यवस्था | सत्य, न्याय, और करुणा के साथ कर्तव्य |
क्षेत्र | संपूर्ण सृष्टि | मानव जीवन और समाज |
संक्षेप में:
ऋत = “क्या है” (सत्य और व्यवस्था का ब्रह्मांडीय नियम)
धर्म = “क्या करना चाहिए” (सत्य और न्याय के अनुसार आचरण)
कहानी: ऋत और धर्म
प्राचीन काल में हिमालय की तलहटी में एक आश्रम था, जहाँ ऋषि वेदव्यास अपने शिष्यों को सत्य और नीति का ज्ञान देते थे।
एक दिन शिष्य अर्जुन ने पूछा –
“गुरुदेव, ऋत और धर्म में क्या अंतर है?”
ऋषि मुस्कराए और बोले –
“चलो, तुम्हें एक घटना से समझाता हूँ।”
गाँव में अकाल पड़ा था। नदियाँ सूख गईं और खेत बंजर हो गए।
ऋषि ने अपने अनाज-भंडार के दरवाज़े खोल दिए ताकि भूखे लोग खाना पा सकें।
तभी एक व्यापारी आया, जिसने कहा —
“गुरुदेव, नियम तो यह है कि अनाज का आदान-प्रदान मूल्य देकर हो। अगर सबको मुफ्त दे दोगे, तो व्यापारी बर्बाद हो जाएँगे।”
ऋषि बोले —
“व्यापार का नियम धर्म के अंतर्गत है, लेकिन जीवन बचाना ऋत के अंतर्गत है।
ऋत कहता है — प्रकृति और ब्रह्मांड का पहला नियम है जीवन को बनाए रखना।
धर्म कहता है — परिस्थितियों में वही आचरण करो जो न्यायसंगत हो।
अकाल में भूखे को अन्न देना ही धर्म है, और यह ऋत के भी अनुरूप है।”
अर्जुन ने समझा कि —
- ऋत वह अटल नियम है जो सृष्टि के संतुलन के लिए बना है।
- धर्म वह आचरण है जो उस संतुलन को परिस्थिति के अनुसार बनाए रखता है।
ऋषि ने कहा — “जब तुम्हारा धर्म, ऋत के मार्ग पर चलता है, तब ही जीवन सच्चे अर्थों में सफल होता है।यह सिखाता है कि जो जीवन “ऋत” में है, वही जीवन सफल, शांत और आत्मिक होता है।🙏 “ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि।”
(मैं ऋत बोलूँगा, सत्य बोलूँगा। – उपनिषद)