सचेतन- 12:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षा से ब्रह्मानंद तक — साधना की संपूर्ण यात्रा
ब्रह्मविद्या कि साधना पढ़ने या सुनने से नहीं, बल्कि तप, साधना और आत्मनिष्ठा से प्रकट होती है। ब्रह्मविद्या का अर्थ – “ब्रह्म” का ज्ञान। ब्रह्म = अनंत, सर्वव्यापक चेतना, जो सृष्टि के प्रत्येक कण में विद्यमान है।ब्रह्मविद्या वह विद्या है जो हमें यह समझाती है कि — हम केवल शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि उस अनंत ब्रह्म के अंश हैं।
यह परम ज्ञान है, जिससे जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझ आता है और आत्मा की मुक्ति होती है।जैसे एक बूँद यह जान ले कि वह समुद्र से अलग नहीं, बल्कि उसी का अंश है — यही ब्रह्मविद्या का बोध है।
जब चेतना शुद्ध हो जाती है, तब ब्रह्मविद्या का साक्षात्कार होता है।कह सकते हैं: चेतना = अनुभव करने की क्षमता और ब्रह्मविद्या = उस अनुभव का परम ज्ञान। इस क्षमता और ज्ञान के लिए साधना करनी पड़ती है।
तैत्तिरीय उपनिषद् – प्रथम शिक्षावल्ली के प्रारंभ का सार है, जिसमें शिक्षा शब्द के अर्थ और उसके छह मौलिक तत्त्वों की व्याख्या मिलती है।“सचेतन” का सीधा अर्थ है — जागरूक होकर जीना।यह उपनिषद् की शिक्षा से मेल खाता है।सचेतन का उद्देश्य है: अपने भीतर की चेतना को जागृत करना। सही विचार, सही वाणी और सही आचरण में संतुलन लाना।जीवन के हर क्षण को श्रद्धा और जागरूकता से जीना।आत्मा और ब्रह्म के एकत्व का अनुभव करना।
इसे सरल रूप में इस तरह समझा जा सकता है— शिक्षा = शब्दों को सही ढंग से बोलने, गाने और पहुँचाने की कला और विज्ञान। शिक्षा = वैदिक पाठ का वह अंग, जिसमें उच्चारण, स्वर और लय की शुद्धता का ज्ञान कराया जाता है।
इसके छः मौलिक तत्त्व हैं:
- वर्ण — अक्षरों का शुद्ध उच्चारण।
- स्वर — उच्चारण का सही स्वर (उदात्त ऊँचा स्वर (raised tone), अनुदात्त नीचा स्वर (lower tone), स्वरित)।
- सुरतारत्व (मात्रा) — ध्वनि की लंबाई और समय (ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत)।
- प्रयास (बल) — उच्चारण में उचित बल, दबाव और स्पष्टता।
- समतान (साम) — मंत्र-पाठ की स्वर-लय और मधुरता।
- सातत्य (सन्तान) — एक अक्षर या शब्द से अगले में सही और सतत प्रवाह
शिक्षा हो या वैदिक मंत्र का अध्ययन केवल शब्द याद करना नहीं है, बल्कि इन छह तत्त्वों की पूर्ण शुद्धता के साथ मंत्र का उच्चारण करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।