सचेतन- 13:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली -शुद्ध उच्चारण क्यों आवश्यक है?

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सचेतन- 13:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली -शुद्ध उच्चारण क्यों आवश्यक है?

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शिक्षावल्ली तैत्तिरीय उपनिषद् (यजुर्वेद की शाखा) का प्रथम भाग है। “वल्ली” का अर्थ है — लता या शाखा। इसलिए शिक्षावल्ली = वह शाखा जिसमें शिक्षा (उच्चारण, स्वर, लय और पाठ की शुद्धि) के विषय में ज्ञान दिया गया है।

शिक्षा में उच्चारण, स्वर, मात्रा और बल की शुद्ध परंपरा।इसके छः अंग (तत्त्व) हैं 

  1. वर्ण – अक्षरों का शुद्ध उच्चारण।
  2. स्वर – उदात्त, अनुदात्त, स्वरित।
  3. मात्रा – ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत (ध्वनि की लंबाई)।
  4. बल (प्रयास) – उच्चारण में उचित बल और स्पष्टता।
  5. साम (समानता) – स्वर-लय का मधुर संतुलन।
  6. सातत्य (संधि) – निरंतरता और प्रवाह।

शिष्य को यह सिखाना कि वेदपाठ केवल पढ़ने का विषय नहीं है, बल्कि शुद्ध उच्चारण, अनुशासन, सदाचार और आचार–विचार के साथ जीवन जीने की साधना है। शिक्षावल्ली में गुरु-शिष्य परंपरा, ब्रह्मचर्य, गुरुसेवा, सत्य, तप, संयम और समाज में आचारधर्म का पालन करने के उपदेश भी दिए गए हैं। शिक्षावल्ली वेदों के सही उच्चारण और आचारयुक्त जीवन के लिए प्रथम सीढ़ी है।

शुद्ध उच्चारण क्यों आवश्यक है?

  1. ध्वनि का प्रभाव – मंत्र और वेदपाठ ध्वनि पर आधारित हैं।
    अगर उच्चारण बिगड़ा, तो अर्थ और प्रभाव भी बदल सकता है।
  2. सामंजस्य – शुद्ध वर्ण से स्वर और लय सही रहती है।
  3. आध्यात्मिक शक्ति – सही उच्चारण से मन शुद्ध होता है और साधना का फल मिलता है।

🎶 उदाहरण “ॐ” का उच्चारण — इसमें ‘अ’, ‘उ’, और ‘म्’ तीन ध्वनियाँ मिलकर गूँजती हैं। अगर इसे “ओम्” या “अम” बोला जाए तो अर्थ और कंपन दोनों बदल जाते हैं।

वर्ण = अक्षर इसका अर्थ है — हर अक्षर का शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण।

वेदपाठ में स्वर (अ, आ, इ, ई… आदि) और व्यंजन (क, ख, ग, घ… आदि) को बिना बिगाड़े, पूरी स्पष्टता से बोलना ही वर्ण-शुद्धि है। यदि उच्चारण सही न हो, तो मंत्र का अर्थ बदल सकता है।
उदाहरण

  1. “इन्द्र” (देवता का नाम): अगर इसे “अन्द्र” या “एन्द्र” बोला जाए तो अर्थ बदल जाएगा।
  2. “सूर्य” अगर गलत उच्चारण से “शूर्य” या “सूऱ्या” कहा गया तो अशुद्ध हो जाएगा।

क्यों ज़रूरी है?

वेद-मंत्र शाब्दिक हैं → अक्षर ही उनका मूल स्वरूप हैं।
ज़रा-सी अशुद्धि से अर्थ और प्रभाव दोनों बदल सकते हैं।
वर्ण-शुद्धि से ही मंत्र की पवित्रता और शक्ति बनी रहती है।
अभ्यास की विधि

  • रोज़ स्वर और व्यंजन का स्पष्ट उच्चारण करें।
  • गुरु के साथ “जोड़कर” बोलें और अपने उच्चारण की तुलना करें।
  • दर्पण के सामने बोलने से मुख की गति और शुद्धता का अभ्यास होता है।
    वर्ण = हर अक्षर का सही और शुद्ध उच्चारण। यही वेदपाठ की पहली और सबसे ज़रूरी नींव है।

स्वर

🎶 १. उदात्त (Udatta)

अर्थ: ऊँचा स्वर (raised tone)

जब किसी अक्षर या शब्द को सामान्य से थोड़ा ऊँचे स्वर में बोला जाता है।
यह वेदपाठ का मुख्य स्वर है।
उदाहरण: जैसे गाते समय सुर को थोड़ा ऊपर उठाना।

🎶 २. अनुदात्त (Anudatta)

अर्थ: नीचा स्वर (lower tone)
यह स्वर सामान्य से थोड़ा नीचे बोला जाता है।
इसे उच्चारण में धीमा, नम्र और हल्का स्वर मानते हैं।
उदाहरण: जैसे गाते समय सुर को हल्का नीचे गिराना।

🎶 ३. स्वरित (Svarita)

अर्थ: मिला-जुला स्वर (mixed or circumflex tone)
यह स्वर पहले नीचे (अनुदात्त) और फिर ऊपर (उदात्त) जाता है।
इसमें एक प्रकार की लय और तरंग होती है।
उदाहरण: जैसे गाते समय आवाज़ हल्की नीचे जाकर फिर ऊपर उठती है।

सुरतारत्व (मात्रा) का अर्थ है — ध्वनि की लंबाई और उसका समय।संस्कृत में यह मात्रा कहलाता है।

तीन प्रकार की मात्राएँ :

  1. ह्रस्व (लघु)
    बहुत छोटी ध्वनि। समय = 1 मात्रा उदाहरण: अ, इ, उ, ऋ, लृ  (जैसे “क” में ‘अ’ ह्रस्व है।)
  2. दीर्घ (गुरु)
    लंबी ध्वनि। समय = 2 मात्राएँ, उदाहरण: आ, ई, ऊ, ए, ओ (जैसे “का” में ‘आ’ दीर्घ है।)
  3. प्लुत (अत्यंत दीर्घ), और भी खिंची हुई ध्वनि। समय = 3 मात्राएँ, इसे उच्चारण में कभी-कभी “ऽ” (त्रिकाल) से दिखाते हैं। उदाहरण: “ॐ” को खींचकर बोलना — ओ३म्।
    सरल समझ
  • ह्रस्व = छोटा स्वर (एक ताल में)
  • दीर्घ = थोड़ा लंबा (दो ताल में)
  • प्लुत = और लंबा (तीन ताल में)

👉 मात्रा का सही अभ्यास करने से वेद-मंत्र का स्वर और लय शुद्ध रहता है।

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