सचेतन- 14:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली – स्वर, लय और ताल का संतुलन

SACHETAN  > Gyan-Yog ज्ञान योग, Manushyat-मनुष्यत, sadhna, Special Episodes, Uncategorized >  सचेतन- 14:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली – स्वर, लय और ताल का संतुलन

सचेतन- 14:तैत्तिरीय उपनिषद्: शिक्षावल्ली – स्वर, लय और ताल का संतुलन

| | 0 Comments

शिक्षावल्ली तैत्तिरीय उपनिषद् (यजुर्वेद की शाखा) का प्रथम भाग है। “वल्ली” का अर्थ है — लता या शाखा। इसलिए शिक्षावल्ली = वह शाखा जिसमें शिक्षा (उच्चारण, स्वर, लय और पाठ की शुद्धि) के विषय में ज्ञान दिया गया है।

शिक्षा में उच्चारण, स्वर, मात्रा और बल की शुद्ध परंपरा।इसके छः अंग (तत्त्व) हैं 

  1. वर्ण – अक्षरों का शुद्ध उच्चारण।
  2. स्वर – उदात्त, अनुदात्त, स्वरित।
  3. मात्रा – ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत (ध्वनि की लंबाई)।
  4. बल (प्रयास) – उच्चारण में उचित बल और स्पष्टता।
  5. साम (समानता) – स्वर-लय का मधुर संतुलन।
  6. सातत्य (संधि) – निरंतरता और प्रवाह।

शिष्य को यह सिखाना कि वेदपाठ केवल पढ़ने का विषय नहीं है, बल्कि शुद्ध उच्चारण, अनुशासन, सदाचार और आचार–विचार के साथ जीवन जीने की साधना है। 

आज के इस सत्र में हम समतान (साम) और सातत्य (सन्तान) के बारे में चर्चा करेंगे जिसका का अर्थ है — मंत्र-पाठ में स्वर, लय और ताल का संतुलन, जिससे उसका उच्चारण मधुर और सुरीला हो।

समान स्वर : सभी शब्द एक जैसी ध्वनि में निकलें, बीच में टूट-फूट न हो।
लय (ताल) : जैसे गीत गाते समय एक लय होती है, वैसे ही मंत्रोच्चार की भी एक लय होती है।
मधुरता : आवाज़ इतनी कोमल और संतुलित हो कि सुनने वाले के मन में शांति और भक्ति का भाव आए।

उदाहरण: जब हम “ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः” बोलते हैं — हर “शान्तिः” समान स्वर और लय में होना चाहिए।
वेद–मंत्रों में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों को संतुलित करके पढ़ना ही समतान है।
मंत्र का सही प्रभाव तभी होता है जब वह लयबद्ध हो। शुद्ध लय और साम से ही श्रवण सुखद होता है और मन एकाग्र होता है।यह वेद–पाठ को साधारण बोलने से अलग, एक दिव्य अनुभव बना देता है।
सरल अभ्यास विधि:  तालियाँ बजाकर मंत्र का अभ्यास करें (जैसे गिनती के साथ)।
हर शब्द को समान स्वर और लय में दोहराएँ। किसी साथी के साथ मिलकर पढ़ें — यदि दोनों की आवाज़ मेल खाए, तो समझिए समतान हो गया।

शिक्षावल्ली के छठे और अंतिम तत्व :

सातत्य (सन्तान) का अर्थ है — मंत्र-पाठ करते समय एक अक्षर या शब्द से दूसरे तक सहज, सतत और सही प्रवाह होना।यानी पाठ में कोई अचानक रुकावट, टूटन या असंगति न हो।

जैसे मोतियों की माला होती है — हर मोती अलग है, पर धागे से जुड़कर एक लड़ी बनती है। वैसे ही मंत्र के अक्षर और शब्द अलग-अलग होते हुए भी सातत्य से जुड़े रहते हैं।इससे पाठ सुगम, निरंतर और प्रवाही बनता है।
उदाहरण यदि हम बोलें — “ॐ नमः शिवाय”, इसमें “ॐ” और “नमः” के बीच रुकावट नहीं होनी चाहिए।“नमः” से “शिवाय” भी सहज रूप से जुड़ना चाहिए।
अगर कोई पढ़े —  “ॐ … (लंबा विराम) … नमः … (कटकर) … शिवाय”
तो मंत्र का प्रवाह टूट जाता है, और यह सातत्य नहीं कहलाएगा।
क्यों ज़रूरी है?सातत्य से पाठ स्पष्ट, सुंदर और प्रभावी होता है।यह सुनने वालों को भी एकाग्र करता है।टूटे-फूटे पाठ से अर्थ और मधुरता दोनों बिगड़ जाते हैं।
सरल अभ्यास विधि: एक मंत्र को धीरे-धीरे बिना रुके पढ़ें।फिर उसी को सामान्य गति में बोलें।बीच में अतिरिक्त विराम न लें, केवल जहाँ नियम अनुसार “विराम” आवश्यक है, वहीं थोड़ी रुकावट रखें। संक्षेप में : सातत्य = अक्षरों और शब्दों को जोड़ने वाला प्रवाह, जो मंत्र-पाठ को संगीतमय और दिव्य बनाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *