सचेतन- 23:तैत्तिरीय उपनिषद्: विज्ञानपुरुष ही “कर्त्ता” है
विज्ञानमय कोश = वह आवरण/स्तर जिसमें बुद्धि (Intellect), विवेक (Discrimination), और निर्णय-शक्ति काम करते हैं। कर्त्ता अर्थात् वह जो कार्य करता है (doer/subject)। उदाहरण: राम फल खाता है। → यहाँ “राम” कर्त्ता है, क्योंकि खाने का काम वही कर रहा है।
वाक्य का वह अंग जिससे यह ज्ञात होता है कि क्रिया किसके द्वारा की जा रही है, उसे कर्त्ता कहते हैं।
उपनिषद इसे “कर्त्ता” (Doer / Decision-maker) कहता है, क्योंकि:
- निर्णय लेने की शक्ति – शरीर (अन्नमय) केवल साधन है, प्राण (ऊर्जा) केवल शक्ति है, मन केवल भावनाएँ और विचार है। लेकिन क्या करना है और क्या न करना है, इसका निर्णय बुद्धि लेती है।
- धर्म-अधर्म का विवेक – मन कह सकता है “मुझे मिठाई खानी है”,
लेकिन बुद्धि तय करती है – “यह मेरे स्वास्थ्य के लिए ठीक है या नहीं।”
इस विवेक से कर्म की दिशा बनती है। - कर्तृत्व का आधार – उपनिषद कहता है कि कर्म का असली जिम्मेदार बुद्धि है।
क्योंकि शरीर, प्राण और मन तो उपकरण मात्र हैं, उन्हें दिशा बुद्धि ही देती है।
इसलिए इसे “कर्त्ता” कहा गया।
विज्ञानमय कोश का रूपक, “विज्ञानपुरुष” है तैत्तिरीयोपनिषद् (ब्रह्मानन्दवल्ली, तृतीय अनुक्रमणिका) में कहा गया है कि जैसे अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश को पुरुष-रूपक में समझाया गया है, वैसे ही विज्ञानमय कोश को भी “विज्ञानपुरुष” रूप में प्रस्तुत किया गया है।
यहाँ उपनिषद ने बताया है कि इस विज्ञानपुरुष के अलग-अलग अंग क्या हैं —
- श्रद्धा = उसका शिर (सिर) बिना श्रद्धा के ज्ञान अधूरा है। श्रद्धा (आस्था/विश्वास) बुद्धि का सिर है, क्योंकि यह ज्ञान की दिशा तय करता है। यदि बुद्धि के पास श्रद्धा न हो तो उसका ज्ञान केवल तर्क-वितर्क रह जाता है, जीवनदायिनी शक्ति नहीं।
- ऋत (सत्य-व्यवस्था) = उसका दक्षिण पंख (हाथ) ऋत का अर्थ है ब्रह्मांड का शाश्वत नियम (कॉस्मिक ऑर्डर)।जैसे हाथ काम करते हैं, वैसे ही ऋत बुद्धि को कर्म की दिशा देता है। बुद्धि तभी सार्थक होती है जब वह सार्वभौमिक नियम और व्यवस्था के अनुरूप कार्य करे।
- सत्यम् (नैतिक-सत्य) = उसका उत्तर पंख (हाथ) सत्य का अर्थ है नैतिकता और आचरण की शुद्धता।बुद्धि का एक हाथ तभी सही है जब वह केवल बाहरी नियमों (ऋत) पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में सत्य और ईमानदारी पर भी टिका हो।
- योग/धर्म = उसका आत्मा (हृदय) उपनिषद कहता है कि विज्ञानपुरुष का हृदय धर्म (कर्तव्य, न्याय, नियम, संयम) है। यही आत्मा है, क्योंकि धर्म के बिना ज्ञान केवल चतुराई रह जाता है, वास्तविक विवेक नहीं। धर्म और योग ही वह शक्ति है जो बुद्धि को आत्मा से जोड़ती है और साधक को ब्रह्म की ओर ले जाती है।
इसका गूढ़ संकेत है उपनिषद हमें बताना चाहता है कि —
- बुद्धि (विज्ञानमय कोश) का केंद्र श्रद्धा, सत्य और धर्म है।
- यदि श्रद्धा सिर है, ऋत और सत्यम् हाथ हैं, और धर्म उसका हृदय है, तो यह स्पष्ट है कि बुद्धि केवल गणना या तर्क का यंत्र नहीं, बल्कि जीवन-मार्गदर्शन का साधन है।
- यही कारण है कि इसे “कर्त्ता” कहा गया।
एक उदाहरण से समझें
मान लीजिए किसी को बहुत ज्ञान है — वह वैज्ञानिक भी है, तर्कशास्त्री भी।
लेकिन यदि उसमें श्रद्धा न हो, और सत्य-धर्म का पालन न हो, तो उसका ज्ञान समाज के लिए अहितकारी बन सकता है। (जैसे बम बनाने वाला वैज्ञानिक)।
पर वही ज्ञान जब श्रद्धा, ऋत, सत्यम् और धर्म से जुड़ता है, तो वह सृजन और कल्याण का साधन बन जाता है। इसलिए उपनिषद कहता है — विज्ञानपुरुष के ये ही अंग हैं, और इन्हीं पर उसकी संपूर्ण शक्ति और शुद्धता टिकी है।
✨ संक्षेप में:
“विज्ञानपुरुष” का रूपक यह सिखाता है कि विवेक और बुद्धि का आधार केवल तर्क नहीं, बल्कि श्रद्धा, ऋत, सत्यम् और धर्म होना चाहिए। तभी विज्ञानमय कोश साधक को ब्रह्म की ओर ले जाता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् कहता है कि विज्ञानमय कोश को “विज्ञानपुरुष” मानो —
- श्रद्धा = उसका सिर
- ऋत (सत्य) = उसका दक्षिण पंख (हाथ)
- सत्यम् = उसका उत्तर पंख
- योग/धर्म = उसका आत्मा (हृदय)
यह बताता है कि बुद्धि का केंद्र ही सत्य और धर्म है, और वही सब अंगों को (शरीर, प्राण, मन) नियंत्रित करता है।