सचेतन- 19:तैत्तिरीय उपनिषद्: ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है
“विज्ञानं ब्रह्मेति” = ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है।
विज्ञान यहाँ केवल भौतिक विज्ञान (Science) नहीं है, बल्कि आत्म-बोध और विवेकपूर्ण ज्ञान है।
यह वह स्तर है जहाँ साधक केवल मन और भावना (मनोमय कोश) से ऊपर उठकर सही-गलत को पहचानने वाली बुद्धि (विज्ञानमय कोश) तक पहुँचता है।
यही विवेक उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है।
क्यों कहा गया “विज्ञानं ब्रह्मेति”? क्योंकि ब्रह्म को केवल विश्वास या भावना से नहीं, बल्कि स्पष्ट विवेक और अनुभव से जाना जाता है।
विज्ञानमय कोश ही वह स्थान है जहाँ व्यक्ति “मैं शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन भी नहीं – मैं शुद्ध चेतना हूँ” का निर्णय कर पाता है।
यह आत्मचिंतन और तर्कबुद्धि ब्रह्म की सच्चाई को पहचानने का मार्ग है।
एक साधक ने गुरु से पूछा:
“गुरुदेव, लोग कहते हैं संसार नश्वर है और आत्मा अमर है। यह मैं कैसे मानूँ?”
गुरु ने एक दीपक दिखाकर कहा:
“तेल और बाती बदल सकते हैं, लौ बुझ सकती है।
लेकिन अग्नि का तत्व (ऊष्मा और प्रकाश) नष्ट नहीं होता।
इसी प्रकार शरीर बदलते रहते हैं, पर आत्मा – जो प्रकाश देती है – अमर है।”
साधक ने तर्क और अनुभव से समझ लिया।
यही है “विज्ञानं ब्रह्मेति” — जब ज्ञान और विवेक से सत्य प्रकट हो जाता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् (ब्रह्मानन्दवल्ली, 2.4–2.6) पाँच कोशों का वर्णन करता है –
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय।
जब साधक विज्ञानमय कोश तक पहुँचता है, तब कहा जाता है:
“विज्ञानं ब्रह्मेति” — ज्ञान और विवेक ही ब्रह्म है।
यहाँ “विज्ञान” का अर्थ है –
- केवल जानकारी (Information) नहीं,
- बल्कि धर्म-अधर्म का विवेक,
- कर्तव्य का बोध,
- और आत्मा के स्वरूप की पहचान।