सचेतन 2.66: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – अशोक वृक्ष के नीचे शुभ शकुन प्रकट होते हैं
हनुमान जी ने सीताजी का विलाप, त्रिजटा का स्वप्नचर्चा — ये सब प्रसंग ठीक-ठीक सुन लिये।
इस प्रकार अशोक वृक्ष के नीचे आने पर बहुत-से शुभ शकुन प्रकट हो उन व्यथितहृदया, सती-साध्वी, हर्षशून्य, दीनचित्त तथा शुभलक्षणा सीता का उसी तरह सेवन करने लगे, जैसे श्री सम्पन्न पुरुष के पास सेवा करने वाले लोग स्वयं पहुँच जाते हैं। उस समय सुन्दर केशों वाली सीता का बाँकी बरौनियों (नेत्र पलक के छोर पर उगे बाल को कहते हैं।) से घिरा हुआ परम मनोहर काला, श्वेत और विशाल बायाँ नेत्र फड़कने लगा। जैसे मछली के आघात से लाल कमल हिलने लगा हो।
साथ ही उनकी सुन्दर प्रशंसित गोलाकार मोटी, बहुमूल्य काले अगुरु और चन्दन से चर्चित होने योग्य तथा परम उत्तम प्रियतम द्वारा चिरकाल से सेवित बायीं भुजा भी तत्काल फड़क उठी। फिर उनकी परस्पर जुड़ी हुई दोनों जाँघों में से एक बायीं जाँघ, जो गजराज की ढूँड़ के समान पीन (मोटी) थी, बारम्बार फड़ककर मानो यह सूचना देने लगी कि भगवान् श्रीराम तुम्हारे सामने खड़े हैं।
तत्पश्चात् अनार के बीज की भाँति सुन्दर दाँत, मनोहर गात्र और अनुपम नेत्रवाली सीता का, जो वहाँ वृक्ष के नीचे खड़ी थीं, सोने के समान रंगवाला किंचित् मलिन रेशमी पीतांबर तनिक-सा खिसक गया और भावी शुभ की सूचना देने लगा। इनसे तथा और भी अनेक शकुनों से, जिनके द्वारा पहले भी मनोरथ सिद्धि का परिचय मिल चुका था, प्रेरित हुई सुन्दर भौंह वाली सीता उसी प्रकार हर्ष से खिल उठीं, जैसे हवा और धूप से सूखकर नष्ट हुआ बीज वर्षा के जल से सिंचकर हरा हो गया हो।
उनका बिम्बफल (कुँदरू) के समान लाल ओठों, सुन्दर नेत्रों, मनोहर भौंहों, रुचिर केशों, बाँकी बरौनियों तथा श्वेत, उज्ज्वल दाँतों से सुशोभित मुख राहु के ग्रास से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति प्रकाशित होने लगा।
उनका शोक जाता रहा, सारी थकावट दूर हो गयी, मन का ताप शान्त हो गया और हृदय हर्ष से खिल उठा। उस समय आर्या सीता शुक्लपक्ष में उदित हुए शीत रश्मि चन्द्रमा से सुशोभित रात्रि की भाँति अपने मनोहर मुख से अद्भुत शोभा पाने लगीं।
सीता जी से वार्तालाप करने के विषय में हनुमान जी का विचार करना
पराक्रमी हनुमान जी ने भी सीताजी का विलाप, त्रिजटाकी स्वप्नचर्चा तथा राक्षसियों की डाँट-डपट— ये सब प्रसंग ठीक-ठीक सुन लिये। सीता जी ऐसी जान पड़ती थीं मानो नन्दनवन में कोई देवी हों। उन्हें देखते हुए वानरवीर हनुमान जी तरह-तरह की चिन्ता करने लगे- जिन सीताजी को हजारों-लाखों वानर समस्त दिशाओं में ढूँढ़ रहे हैं, आज उन्हें मैंने पा लिया। मैं स्वामी द्वारा नियुक्त दूत बनकर गुप्त रूप से शत्रु की शक्ति का पता लगा रहा था। इसी सिलसिले में मैंने राक्षसों के तारतम्य का, इस पुरी का तथा इस राक्षसराज रावण के प्रभाव का भी निरीक्षण कर लिया। श्रीसीताजी असीम प्रभावशाली तथा सब जीवों पर दया करने वाले भगवान् श्रीराम की भार्या हैं। ये अपने पतिदेव का दर्शन पाने की अभिलाषा रखती हैं, अतः इन्हें सान्त्वना देना उचित है।
इनका मुख पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर है। इन्होंने पहले कभी ऐसा दुःख नहीं देखा था, परंतु इस समय दुःख का पार नहीं पा रही हैं। अतः मैं इन्हें आश्वासन दूंगा। ये शोक के कारण अचेत-सी हो रही हैं, यदि मैं इन सती-साध्वी सीता को सान्त्वना दिये बिना ही चला जाऊँगा तो मेरा वह जाना दोषयुक्त होगा। मेरे चले जाने पर अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर ये यशस्विनी राजकुमारी जानकी अपने जीवन का अन्त कर देंगी।
पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले महाबाहु श्री रामचन्द्रजी भी सीता जी के दर्शन के लिये उत्सुक हैं। जिस प्रकार उन्हें सीता का संदेश सुनाकर सान्त्वना देना उचित है, उसी प्रकार सीता को भी उनका संदेश सुनाकर आश्वासन देना उचित होगा। परंतु राक्षसियों के सामने इनसे बात करना मेरे लिये ठीक नहीं होगा। ऐसी अवस्था में यह कार्य कैसे सम्पन्न करना चाहिये, यही निश्चय करना मेरे लिये सबसे बड़ी कठिनाई है। यदि इस रात्रि के बीतते-बीतते मैं सीता को सान्त्वना नहीं दे देता हूँ तो ये सर्वथा अपने जीवन का परित्याग कर देंगी, इसमें संदेह नहीं है। यदि श्रीरामचन्द्रजी मुझसे पूछे कि सीता ने मेरे लिये क्या संदेश भेजा है तो इन सुमध्यमा सीता से बात किये बिना मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा। यदि मैं सीता का संदेश लिये बिना ही यहाँ से तुरंत लौट गया तो ककुत्स्थ कुलभूषण भगवान् श्रीराम अपनी क्रोध भरी दुःसह दृष्टि से मुझे जलाकर भस्म कर डालेंगे।