सचेतन 226: शिवपुराण- वायवीय संहिता – आत्म विषय आपकी चेतना, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पृथक है।
अध्यात्म का ज्ञान शरीर को जानने से आरंभ होता है|
आपको स्वयं के गुण को भी समझने के लिए विवेक चाहिए जिसको पार्थक्य ज्ञान कहते हैं। यानी पृथक या अलग होने वाली अवस्था का पता चलना या अलग अलग परिस्थितियों में उस घटना का भाव का पता चलना और यहाँ तक की एक वस्तु को दूसरी वस्तु से अलग करने वाला गुण को समझना।
योगशास्त्र में अनुसार बुद्धि तत्त्व एवं पुरुष के भेद का ज्ञान नहीं होने की दशा में भी शास्त्र के आधार पर सामान्य विवेक ज्ञान का होना आवश्यक है।
हमारे पास पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व ( बुद्धि ), अहंकार और मन-ये चार अन्त:करण-सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं जिसको पृथक पृथक जानना चाहिए। हमारे कर्म करने की दो अवस्था है पहला है कारण अवस्था और दूसरा है कार्य अवस्था जिसका भाव भी पृथक पृथक होना चाहिए।
कारण अवस्था में जब हम कोई कर्म करते हैं तो हम उस वस्तु या क्रिया से पुर्व संबद्ध रहते हैं यानी हम जानते हैं की किस कर्म का क्या प्रभाव होगा हमको क्या संप्राप्ति होगी और हम उस कार्य के हेतु और निमित होते है। जैसे किसी व्यवसाय या कोई व्यावसायिक गतिविधियों से आमतौर पर व्यवसायी को आय प्राप्त होना ही कारण कर्म है।कारण अवस्था में कर्म एक अव्यक्त ( प्रकृति) का वर्णन होता है क्योंकि इसमें शरीर आदि के रूप का समष्टि नहीं होता है लेकिन जब हम शरीर आदि के रूप या अवस्था को प्राप्त होकर कार्य करते हैं तो इसको ‘व्यक्त’ संज्ञा कहते हैं और यह कार्य अवस्था होती है।
मुनियों ने वायु देवता से पूछा-प्रभो! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तु की वास्तविक स्थिति कहाँ है? व्यतिरिक्त यानी भिन्न, अलग, अपवादित, जिसका अपवाद किया गया हो वैसी आत्मा क्या है।
वायुदेवता बोले-महर्षियो! आत्म विषय को जानने के लिए सर्वव्यापी चेतना और उसकी बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पृथक मानना अवश्य है। अध्यात्म का ज्ञान शरीर को जानने से आरंभ होता है लेकिन आत्म विषय शरीर से अलग है।
आत्म ज्ञानी को पिंड-ज्ञानी कहते हैं वैसे वीरशैव दर्शन में विवेक-संपन्न जीव को ‘पिंडज्ञानी’ कहते हैं। आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है। परन्तु उसकी सत्ता या मौजूदगी किसी हेतु की उपलब्ध है यह जानना बहुत ही कठिन है!
सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धि का ज्ञान) अनियत है यानी बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा यह जानना अनिश्चित है और आत्मा को इससे तय नहीं किया जा सकता है और ना ही इसे सम्पूर्ण शरीर के अनुभव से जाना जा सकता है।
इसीलिये वेदों और वेदान्तों में आत्मा को पूर्वानुभूत विषयों का स्मरण कर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थो में व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है। यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है।
न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और न किसी स्थान-विशेषमें यह सम्पूर्ण चल शरीरों में अविचल, निराकार एवं अविनाशीरूप से स्थित है। ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करने से उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं।
कहते हैं की पुरुष के शरीर से बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुःखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है। उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार सुखी, दुःखी और मृढ़ होता है। इसीलिय आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हेतु शरीर की शुद्धि आवश्यक है जो योग, ध्यान, आराधना और प्रार्थना से संभव है।